राजा मानसिंह प्रथम | राजा मानसिंह का जन्म भगवन्तदास की रानी भगोती (भगवती) ‘पंवारजी’ से 1607 ई. को हुआ था. मानसिंह अपने पिता की मृत्यु के बाद 1589 ई. को आमेर का शासक बना था
राजा मानसिंह प्रथम
‘मानचरित्र’ (पृ.8) से आभासित होता है कि संवत् 1607 (1550 ई.) को भगवन्तदास की रानी भगोती (भगवती) ‘पंवारजी’ से मानसिंह का जन्म हुआ। उसकी राजोचित शिक्षा दीक्षा का प्रबंध भारमल ने आमेर से दूर मोजिमाबाद में किया। राजा भगवन्तदास की मृत्यु के बाद 1589 ई. में उसका पुत्र मानसिंह आमेर का शासक बना। अकबरनामा (अबुल फजल कृत) के अनुसार कुँवर मानसिंह अपनी 12 वर्ष की अवस्था से ही अर्थात् 1562 ई. से मुगल सेवा में प्रविष्ट हो गया था। उसने अकबर के साथ रहकर अपना सैनिक शिक्षण परिपक्व बना लिया। रणथम्भौर के 1569 ई. के आक्रमण के समय मानसिंह और उसके पिता भगवन्तदास अकबर के साथ थे। इसमें उन दोनों पिता-पुत्रों का बहुत बड़ा योगदान था।
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सरनाल के युद्ध में उसने विशेष ख्याति अर्जित की थी। अप्रैल 1573 में डूंगरपुर के शासक आसकरण को परास्त किया। यहाँ से कुँबर उदयपुर गया और राणा प्रताप से उसकी भेंट हुई। बिहार में दाउदखों के विद्रोह की सूचना मिली तो सम्राट ने उसको दबाने के लिए उस ओर प्रस्थान किया। इस अवसर पर मानसिंह भी उसके साथ था मानसिंह के जीवन में मेवाड़ अभियान एक बड़ी महत्त्वपूर्ण घटना थी। गुजरात से लौटते हुए तो 1573 ई. में वह एक मर्तबा मेवाड़ जा चुका था। 1576 ई. में अकबर ने उसे दुबारा 5000 सैनिकों को देकर राणा प्रताप के विरुद्ध मेवाड़ भेजा। मालवा में सुशासन व्यवस्था स्थापित कर मानसिंह ने पुनः सम्राट को उसका प्रशंसक बना लिया।

काबुल की सूबेदारी (1585 ई.) :
मेवाड़ अभियान (हल्दीघाटी युद्ध के बाद अकबर ने मानसिंह को 1580 ई. में उत्तर-पश्चिमी सीमान्त भागों एवं सिंघ प्रदेश की सुव्यवस्था के लिए नियुक्त किया। 1581 ई. में मानसिंह ने काबुल के हाकिम मिर्जा को परास्त किया। हाकिम मिर्जा की लौटती हुई सेना का मानसिंह ने सिन्धु नदी तक पीछा किया और वह पुनः लाहौर चला आया। जब अकबर को इस विषय की सूचना मिली तो उसने उसका मनसब 5000 जात एवं 5000 सवार कर दिया।
सम्राट ने मानसिंह की सेवा से प्रसन्न होकर उसे सिन्ध प्रदेश का प्रमुख अधिकारी (फौजदार) बना दिया और जब 30 जुलाई 1585 ई. में मिर्जा की मृत्यु हो गयी और उसके पुत्रों के अल्पवयस्क होने से स्थानीय सामन्तों ने काबुल पर अधिकार कर लिया, तो इस स्थिति से लाभ उठाने के लिए कुँवर मानसिंह को ससैन्य काबुल जाने का आदेश मिला। आपसी फूट का लाभ उठाकर मानसिक ने काबुल पर मुगल शक्ति का अधिकार स्थापित करने में सफलता दिखायी रोशनिया अफगानी भी कुँवर के द्वारा दबाये गये। इन सेवाओं के उपलक्ष्य में सम्राट ने कुँवर मानसिंह को काबुल का सूबेदार नियुक्त कर दिया। कुँवर मानसिंह काबुल में जनप्रिय हो गया। था और उसने वहां सुव्यवस्था स्थापित कर अपने उत्तरदायित्व को ठीक तरह से निभाया था। काबुल विजय के दौरान मानसिंह ने अब्दुला खान एवं उसके पांच पठानों को परास्त किया जिनके पांच रंग के झण्डे छीन लिए सामंत के अनुरोध पर मानसिंह ने आर के सफेद आदूझाड़शाही झण्डे की जगह इस ‘पचरंगा झण्डे’ को सदा के लिए आमेर के लिए नियत किया जो काबुल विजय का स्मारक था।
बिहार की सूबेदारी काबुल से मानसिंह का स्थानान्तरण विहार कर दिया गया, क्योंकि वहां स्थानीय जमींदारों के उपद्रव हो रहे थे और कई छोटे-छोटे राजा मुगल सत्ता की अवहेलना कर मनमानी करते थे। 1589 में उसके पिता भगवन्तदास की मृत्यु हो गयी। वह आमेर पहुंचा और वहाँ औपचारिक रूप से उसकी गरीनशीनी हुई। अकबर ने भी उसके लिए टीका भेजा और उसके 5000 के मनसब को पक्का कर सम्मानित किया। इसके बाद सबसे पहले उसने गिधोर के राजा पूर्णमल को परास्त कर उसे मुगल अधीनता स्वीकार करने को बाध्य किया। तत्पश्चात् खड़गपुर के संग्रामसिंह, शम्भुपरी के सैयद, हाजीपुर का राजा गणपत, उड़ीसा के कतलूक खव नसीर खां आदि को मुगल सत्ता के अधीन किया।
बंगाल की सूबेदारी (1594 ई)
मानसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर 1594 ई. में सघाट ने उसे बंगाल का सूबेदार बनाया। सबसे पहले उसने सूबे की राजधानी यण्डा से बदल कर राजमहल कर दो, जिसकी सैनिक स्थिति तथा जलवायु सन्तोषजनक थी। उसने पूर्वी बंगाल के विद्रोहियों को, जिनमें ईसाखी, सुलेमान और केदारराय मुख्य थे, दबाया 1596 ई. में उसने कूचबिहार के राजा लक्ष्मीनारायण राज्य को मुगल सत्ता के प्रभाव क्षेत्र में स्मलित किया उससे संधि कर उसकी बहन अवलादेवी से यहाँ रहते हुए उसके पुत्र दुर्जनसिंह और हिम्मतसिंह मर चुके थे। वह स्वयं 1596 ई. में बीमार हो गया था, अतः उसने अजमेर रहकर बंगाल सूबे की व्यवस्था देखते रहने का निश्चय किया। मानसिंह ने बंगाल की देखरेख के लिए अपने पुत्र जगतसिंह को नियुक्त करवाया, परन्तु अभाग्यवश 1599 ई में उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गयी।
बंगाल में भू-राजस्व व्यवस्थित करना बंगाल के शासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उसने अकबर नगर की, जो पीछे राजमहल कहलाया, स्थापना की ‘मुकन्दराम’ ने जो समसामयिक कवि था, अपनी कविता में बंगाल सूबे की भूमिमाप व्यवस्था, कठोर शासन और अधिकारियों के संबंध में कुछ प्रकाश डाला है। वह लिखता है कि मानसिंह के सहयोगियों में मुहम्मद शरीफ व रायजादा प्रमुख व्यक्ति थे जो खेतों को रस्सों से नापते थे और लगान वसूल करते थे। पेरी-डी जेरिक के वर्णन से तो स्पष्ट है कि बंगाल का सूबा मानसिंह की सूबेदारी में आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न अवस्था में था। 17वीं शताब्दी के ‘अडसट्टों’ से भी यही स्पष्ट है।
अंत में 1604 ई. में बंगाल में पूर्णतया शांति हुई। इससे प्रसन्न होकर बादशाह ने अपने राज्याभिषेक के 50वें वर्ष पर (11 मार्च, 1605) को 1000 मोहरे, 12,000 रुपये पुरस्कार में दिए व उसे 7000 जात और 6000 सवार का मनसब दिया। इस प्रकार सात हजारो मनसव और फर्जन्द का पद प्राप्त करना एक गौरव की बात थी।
जब अकबर की मृत्यु हो गयी तो मानसिंह का महत्व जहाँगीर के समय में उतना न रह सका। उसे वह कभी बंगाल और कभी दक्षिण भेजता रहता था। अन्त में 1614 ई. में उसकी इलीचपुर (महाराष्ट्र) में मृत्यु हो गयी। आमेर के कच्छवाहा शासकों में मानसिंह का स्थान महत्त्वपूर्ण है। मानसिंह का परिवार जहाँगीर तथा ब्लीचमेन ने उसकी रानियों की संख्या 1500 और प्रत्येक से दो या तीन बच्चे होने का उल्लेख किया है, जिनमें से 60 स्त्रियों का सती होना तथा सभी पूर्व की, सिवाय भाऊसिंह के मृत्यु होना भी लिखा है।
आमेर में 24 और रोहतास में 15 खनियों के अलग-अलग निवास-गृह देखे जाते हैं। उसकी मृत्यु के उपरान्त भाऊसिंह और कल्याणसिंह नामक दो पुत्र जीवित थे। मानसिंह का धर्म मानसिंह अपने वंश की परम्परा के अनुसार हिन्दू धर्म में विश्वास रखता था। उसके धर्म में उसे इतनी श्रद्धा थी कि उसने अकबर के आग्रह पर भी दीन-ए-इलाही की सदस्यता स्वीकार न को। इसी तरह से मुंगेर के शाह दौलत नामी संत के कहने से भी इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया भैकुंटपुर में, जो पटना जिले में है, मानसिंह ने एक भवानी शंकर का मन्दिर बनवाया और उसमें विष्णु, गणेश तथा मातृदेवी की मूर्तियों की स्थापना की। गया में उसने महादेव का मन्दिर और आमेर में शिलादेवी का मन्दिर बनवाया था। वृन्दावन के गोविन्दजी के मन्दिर का निर्माण करवाया। आमेर के जगत शिरोमणि के मन्दिर में स्थापित कृष्ण-राधा की मूर्तियाँ भी इसी संप्रदाय से सम्बन्धित हैं।
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विद्यानुरागी :
वह न केवल युद्ध नीति, रण-कौशल तथा शासन कार्य में ही कुशल था वरन् संस्कृत भाषा में उसकी रुचि थी। आमेर का स्तम्भ-लेख, रोहतासगढ़ का शिलालेख और वृन्दावन का अभिलेख उसके संस्कृत भाषा के प्रति प्रेम के द्योतक हैं। ‘मानचरित्र’ तथा ‘महाराजकोष’ नामक ग्रन्थ उसके शासनकाल में रचे गये थे। इसके समय में राय मुरारीदास ने मान-प्रकाश’ तथा जगन्नाथ ने ‘मानसिंह कीर्ति मुक्तावली’ की रचना की थी।
मानसिंह के भाई माधोसिंह के आश्रय में पुण्डरीक ने ‘रागचन्द्रोदय’, ‘रागमंजरी’, ‘नर्तन निर्णय’ तथा ‘दूनी प्रकाश’ और दलपतराज ने ‘पत्र प्रशस्ति’ तथा ‘पवन पश्चिम’ की रचना की थी। इसके समय में हरिनाथ, सुन्दरदास भी दरबारी कवि थे। इसके समय में दादूदयाल ने ‘वाणी’ की रचना की थी। उसका सौभाग्य था कि उसे अकबर के कई दरबारी कवियों से जिनमें दुरसा, होलराय, ब्रह्मभट्ट, गंग आदि प्रमुख थे, सम्पर्क स्थापित करने का अवसर प्राप्त हुआ। राजा मानसिंह ने दासा, नरू, किसना, हरपाल, ईसरदास और डूंगर कविया को 1-1 कोड़प (जिसमें हाथी, घोड़ा, ऊंट, रथ, कपड़े, तलवार, जेवर, चांदी, सोना और गांव थे) दान दिया। छापा बारहठ चारण को सौ हाथी दिए।
स्थापत्य मानसिंह के शासन में वास्तु-शिल्प को बहुत प्रोत्साहन मिला। आमेर के ‘जगत शिरोमणिजी’ का मन्दिर तथा तोरणद्वार की तक्षणकला अपने ढंग की अनूठी है। इस मन्दिर का निर्माण रानी कंकावतीजी ने अपने प्रिय पुत्र जगतसिंह की स्मृति में करवाया था। निर्माण शैली में वृन्दावन का गोविन्दजी का मन्दिर भी फर्ग्यूसन के द्वारा अपूर्व बताया गया है। इसी प्रकार आमेर के राजप्रासाद राजपूत शैली के अच्छे नमूने हैं। बारादरियों के निर्माण में मुगलपन अवश्य है। इनके अतिरिक्त उसने अपने समय में अकबरनगर (बंगाल में) और मानपुर (बिहार में) के नगरों की स्थापना की। नगरों तथा महलों में बगीचों और जलाशयों के निर्माण द्वारा उनकी शोभा को परिवर्द्धित किया गया था।
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राजा मानसिंह प्रथम FAQ
Ans – मानसिंह का जन्म 1607 ई. को हुआ था.
Ans – मानसिंह के पिताजी का नाम भगवंतदास था.
Ans – मानसिंह की माता का नाम रानी भगोती (भगवती) ‘पंवारजी’ था.
Ans – मानसिंह का राज्याभिषेक 1589 ई. को किया गया था.
Ans – मानसिंह की मृत्यु 1614 ई. को हुई थी.
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