राजा भारमल | भारमल पृथ्वीराज कछवाहा के पुत्र थे. इतिहासकार ‘टॉड’ ने इन्हें ‘बिहारीमल’ कहा है। ये आमेर के शासक थे। इनकी मृत्यु 1573 ई. के लगभग हुई
राजा भारमल
अकबरनामा और नैणसी की ख्यात के अनुसार भारमल ने जब देखा की आसकरण शेरशाह के पुत्र सलीमशाह की शरण में पहुँच गया और उसे आमेर पर चढ़ा लाया है, तो उसने सलीमशाह के सरदार हाजीखाँ पठान को धन देकर अपनी ओर मिला लिया और आसकरण को भी सन्तुष्ट करने के लिए उसे नरवर का राज्य दिला दिया। इस प्रकार हाजीखाँ भारमल का मित्र बन गया।
इस समय पठानों ने मुगलों से सत्ता छीनने का फिर प्रयास किया। उनमें हाजी खां पठान सबसे प्रबल था जिसने नारनौल के बादशाही किले को घेर लिया। वहां ‘मजनूंखा काकशाल’ मुगल किलेदार था। भारमल ने अपनी चतुराई और वीरता से ठाकुर गोपाल के सहयोग से मजनूखां को सामान सहित सपरिवार वहां से निकाल बाहर भेज दिया तब हाजीखां को किले में जाने दिया। यह घटना ई.स. 1556 की है। मजनूंखां ने बादशाह के पास भारमल की वीरता की बड़ी तारीफ की और उसको दरबार में बुलाने का आग्रह किया।
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तब सम्राट ने फरमान भेजकर भारमल को भाई-बेटों सहित दिल्ली बुलावे की इज्जत दी। ‘मआसिर उल उमरा’ के अनुसार बादशाह ने उसका मान किया और खिलअत प्रदान कर विदा किया विदा के समय सम्राट अकबर हाथी पर आरूढ़ होकर आया था लेकिन हाथी बिगड़ गया तो सभी लोग भाग खड़े हुए लेकिन भारमल अपने भाई-बंधुओं के साथ अडिग खड़ा रहा। भारमल उस मदमस्त हाथी को वश में कर लिया। इस पर बादशाह ने कहा कि ‘तुरानिहाल ख्वाहमकरद’ अर्थात् मैं तुमको निहाल कर दूंगा और सरफराज (सुशोभित) किए जाओगे।
भारमल और अकबर में घनिष्ठता :
पूर्णमल का एक पुत्र ‘सूजा’ अपने आपको राज्य का वास्तविक हकदार मानता था और इसलिए उसने ‘मेवात’ के सूबेदार ‘सर्फद्दीन’ से मिलकर 1558 ई. में आमेर पर आक्रमण कर दिया। मुगल सेना के दबाने से भारमल को स्वयं पहाड़ों में जाकर छिपना पड़ा और जब 1561 ई. में स्वयं सर्फुद्दीन आमेर आया तो भारमल द्वारा उसे एक बड़ी धनराशि देने के लिए विवश होना पड़ा। विजयी सूबेदार ने उसके पुत्र जगन्नाथ, आसकरण के पुत्र राजसिंह और जोबनेर के जगमल के पुत्र खगार को, जो आमेर के राज्य की रक्षा में लगे हुए थे धरोहर के तौर पर अपने पास रख लिया।
भारमल अब समझ गया था कि मिर्जा की कारगुजारी को अकबर के द्वारा समर्थन मिल जायेगा तो उसको आमेर से हाथ धोना पड़ेगा और राज्य पर सूजा का अधिकार हो जायेगा। उसने सोचा कि मिर्जा की सिफारिश के पूर्व यदि वह अकबर से स्वयं मिलकर उसकी अधीनता स्वीकार कर ले तो उसका पक्ष प्रबल हो सकेगा और सूजा के राज्य पर अधिकार करने की सम्भावना धुंधली हो जाएगी। इसलिए जब 20 जनवरी, 1562 ई. को बादशाह अजमेर की तीर्थयात्रा को ढूंढाड़ के मार्ग से निकला तो उसने सांगानेर में, उसके समर्थक ‘चकताइखाँ’ की सहायता से अकबर से भेंट की और मुगल अधीनता स्वीकार कर ली।
साथ ही उसने अपने संबंधियों और सरदारों को मिर्जा सफ़ेद्दीन की धरोहर से छुड़वाने की भी प्रार्थना की। जब बादशाह अजमेर से लौटा तो भारमल के परिवार को, जो मिर्जा के पास धरोहर के रूप में था, राजा को सुपुर्द करने का आदेश दिया।
अकबर ने 6 फरवरी, 1562 को भारमल की ज्येष्ठ राजकुमारी हरकाबाई से साँभर में विवाह कर लिया। (सम्भवतः राजकुमारी का पहले का नाम ‘मानमति’ था। इसे ‘शाहीबाई’ भी कहते थे जैसा बीकानेर अभिलेखागार के नाम वंशवृक्ष से ज्ञात है। इसे ‘योद्धाबाई’ भी कहा जाता है तथा यह इतिहास में ‘जोधाबाई’ के नाम से प्रसिद्ध है) सम्राट की यह बेगम ‘मरियम-उज्जमानी’ नाम से विख्यात हुई और उनका दाम्पत्य जीवन बड़े सुख से बीता। इसी ने बाद में सलीम (जहाँगीर) को जन्म दिया। भारमल राजपूताना के पहले शासक थे, जिन्होंने मुगलों (अकबर) की अधीनता स्वीकार कर उससे अपनी बेटी ब्याह कर वैवाहिक संबंध स्थापित किए।
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विवाह की समीक्षा :
डॉ. त्रिपाठी ने भी इस वैवाहिक संबंध का समर्थन किया है। इस वैवाहिक संबंध के कारण आमेर के शासक मुगल राज्य व्यवस्था के अंग बन गये। बाद में भारमल को 5000 सवार और जात का मनसब प्रदान किया गया। उसके पुत्र भगवन्तदास व पौत्र मानसिंह राजकीय सेना में प्रतिष्ठित पद पर नियुक्त किये गये। स्वयं भारमल ‘अमीर-उल-उमरा’ तथा ‘राजा’ की उपाधियों से सम्मानित किया गया। वह अकबर का इतना कृपापात्र बन गया कि जब कभी लम्बे समय के लिए सम्राट राजधानी से बाहर जाता था तो उसकी रक्षा का सम्पूर्ण भार भारमल पर छोड़ा जाता था।
ऐसे अवसर पर उसने बंगाल से आये हुए अफगान आक्रमणकारियों को पीछे धकेलकर अपने उत्तरदायित्व को समुचित रूप से निभाया। जो राजकुमारियाँ मुगल अन्तःपुर में प्रवेश प्राप्त करती थी उन्हें अपने धर्म का पालन करने की स्वतन्त्रता थी। अबुल फजल ने लिखा है कि फतेहपुर सीकरी के महलों में हिन्दू रानियों के द्वारा प्रतिदिन होम के आयोजन होते रहते थे। मुगलों में तुलादान, अश्वपूजन, दशहरा, दीपावली के उत्सवों के मनाने की प्रथा आदि वैवाहिक सम्बन्धों के बाद जड़ कर गयी। राजस्थान के विभिन्न भागों में मुगल प्रभाव स्थापित करने में कच्छवाहा वंश का बड़ा हाथ था।
राजा भारमल की मृत्यु वि.स. 1630 (ई.स. 1573 जनवरी) में हुई। इनके अनेक रानियों का उल्लेख मिलता है, जिनमें 9 रानियाँ का वंशावली में भी उल्लेख है। जिनके दस पुत्र हुए- भगवन्तदास (आमेर के राजा हुए), 2. भगवानदास (लवाण के राजा), 3. जगन्नाथ (टोडा के राजा). 4. शार्दुलजी (मालपुरा), 5. सुन्दरदास (चाटसू), 6. भोपतसिंह, 7. पृथ्वीदेव, 8. सबलदेव, 9. रूपचंद, 10. परशुरामजी.
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राजा भारमल FAQ
Ans – राजा भारमल के पिताजी का नाम राजा पृथ्वीराज कछवाहा था.
Ans – राजा भारमल आमेर के शासक थे.
Ans – भारमल को टॉड ने ‘बिहारिमल’ कहा है.
Ans – अकबर ने 6 फरवरी, 1562 को भारमल की ज्येष्ठ राजकुमारी हरकाबाई से साँभर में विवाह किया था.
Ans – राजा भारमल की मृत्यु वि.स. 1630 (ई.स. 1573 जनवरी) में हुई थी.
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