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    मध्यकालीन सामाजिक स्थिति

    मध्यकालीन सामाजिक स्थिति

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    By Kerry on 03/12/2022 मध्यकालीन भारत, राजस्थान का इतिहास

    मध्यकालीन सामाजिक स्थिति | मुसलमानों के आगमन से बहुत पहले राजस्थान में जाति प्रथा प्रचलित थी। वैदिककालीन परम्परा के अनुसार प्राचीन भारत का समाज वर्गों में बंटा हुआ था

    मध्यकालीन सामाजिक स्थिति

    मुसलमानों के आगमन से बहुत पहले राजस्थान में जाति प्रथा प्रचलित थी। वैदिककालीन परम्परा के अनुसार प्राचीन भारत का समाज वर्गों में बंटा हुआ था। इन चार वर्गों में से प्रथम ब्राह्मण वर्ग सर्वाधिक प्रभावशाली था। राजस्थान में ब्राह्मण वर्ग की कई शाखाएँ और उप-शाखाएँ थी जिनमें श्रीमाली, नागर, दायमा और पुष्करणा ब्राह्मण सर्वाधिक प्रभावशाली थे। ये ब्राह्मण रूढ़िवादी थे।

    दक्षिण भारत के दूसरे ब्राह्मणों को ये घृणा की दृष्टि से देखते थे और उन्हें मलेच्छ सम्बोधित करने में हिचकते नहीं थे। ब्राह्मण वर्ग ने एक अपनी विशिष्ट संस्कृति पनपा रखी थी। जिनके ठेकेदार बनकर वे तत्कालीन युग में भारत की हिन्दू सभ्यता और संस्कृति के प्रहरी के रूप में कार्य करने लग गए थे। जय मुसलमानों के आक्रमण होने लगे तो इन ब्राह्मणों ने जाति-शुद्धि का एक नया तरीका निकाल दिया जिसके अनुसार अंतर्जातीय विवाह निषिद्ध कर दिए गए। वंश को अधिक महत्व दिया गया और छुआछूत को प्रोत्साहित किया गया। उस -समय ब्राह्मणों ने माँस-पक्षण तथा स्थान परिवर्तन को धर्म विरुद्ध घोषित करके समाज को सीमित दायरे में बांध दिया। परिणाम यह निकला कि जब मुसलमानों के आक्रमण हुए तो राजपूतों के अतिरिक्त दूसरी जाति का कोई व्यक्ति विदेशी मलेच्छों का मुकाबला करने नहीं गया।

    यह भी देखे :- मध्यकालीन प्रमुख लाग-बाग

    ब्राह्मणों के बाद दूसरा प्रभावशाली वर्ग राजपूतों का था जो अपने आपको वैदिककालीन क्षत्रियों का वंशज बताता था। ‘कान्हड़दे प्रबंध’ के अनुसार प्राचीन राजस्थान में राजपूतों की 36 जातियाँ और उप-जातियाँ थी जिनमें गुर्जर प्रतिहार, चौहान, बघेला, सोलंकी, राठौड़, परमार, गुहिलोत प्रमुख थे। समकालीन शिलालेखों तथा साहित्य में जैसेलमेर के भाटी, यौद्धेय और वराहा राजपूतों का वर्णन भी मिलता है। समकालीन समाज इससे अनभिज्ञ नहीं था कि प्रमुख राजपूत राजघरानों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से हुई थी, उदाहरणार्थ- मेवाड़ के गुहिलोत राणा ख्याति प्राप्त महाराणा कुम्भा के काल तक ब्राह्मणों के वंशज समझे जाते थे।

    मण्डोर के प्रतिहार हरिश्चन्द्र की ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतान के वंशज माने जाते हैं। इसी तरह परमार राजपूतों के पूर्वज वशिष्ठ ऋषि थे राजपूतों और ब्राह्मणों दोनों की सभ्यता एवं संस्कृति एक-दूसरे मे मिलती-जुलती थी। दोनों का ही उद्देश्य मुस्लिम आक्रमणों की निरंतर बाद से हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा करना था। फलस्वरूप दोनों ही जातियाँ मुनस्मृति के आदेशों का पूर्ण पालन करना चाहती थी। यदि कोई जाति अत्याचार करती थी अथवा कोई धर्म प्रतिकूल कार्य करती थी तो इन दोनों जातियों में उसके विरुद्ध प्रतिक्रिया उत्पन्न होती थी।

    शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया और भारत पर विदेशी जातियों ने आक्रमण करना शुरू कर दिया तो शक, सीथियन, हूण आदि जातियां भारत भूमि में बस गई। उन्होंने यहां के धर्म और संस्कृति को अपना लिया। अधिकांश विदेशी जातियाँ लड़ाकू थी। अतएव उन लोगों ने राजपूत सभ्यता और संस्कृति को अधिक सुविधा के साथ ग्रहण कर लिया। परिणाम यह निकला कि राजपूतों में विदेशी रक्त का सम्मिश्रण प्रारम्भ हो गया।

    मध्यकालीन सामाजिक स्थिति
    मध्यकालीन सामाजिक स्थिति

    तीसरी जाति वैश्य थी जिसका अग्रवाल, माहेश्वरी और ओसवाल में विभाजन था। इस जाति की तृतीय उपशाखा (ओसवाल) अधिकांशतः राजपूत राजाओं की सैनिक सेवा में कार्य करती थी। अतएव इसके रहन-सहन, आचार-विचार सब कुछ क्षत्रियों से मिल-जुल गए थे। कुछ लोगों का कहना है कि ओसवालों का सोनगरा राजपूतों से रक्त सम्बन्ध था। जैन धर्म स्वीकार करने के बाद इन लोगों ने ठाकुर की उपाधि त्याग कर एक वैश्य के रूप में कार्य करना प्रारम्भ किया।

    मनुस्मृति के अनुसार वैश्य को कृषि, पशुपालन, व्यापार तथा लेन-देन का धन्धा करना चाहिए, लेकिन राजस्थान के वैश्य व्यापार के अतिरिक्त राजकीय सेवा भी करते थे। कवि कल्पलता नामक ग्रंथ का लेखक तो यहां तक लिखता है कि वैश्यों को राज्य में मंत्री के पद पर नियुक्त करना चाहिए। इसी तरह की परम्परा प्रारंभ में डाली गई और उसका अनुसरण आधुनिक काल तक होता रहा। प्रत्येक राजपूत राज्य में मंत्री के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण पदों पर भण्डारी, मेहता आदि जाति के लोग नियुक्त किए जाते थे।

    मनुस्मृति में शूद्रों के विषय में कुछ लिखा हुआ नहीं है। परन्तु शूद्र लोग राजस्थान में रहते हुए यहां के समाज में कृषि और दूसरे व्यवसायों को करते थे। उनका निजी सम्पत्ति पर अधिकार था और वे द्विज वर्ण से मिलजुल सकते थे; परन्तु उनकी धार्मिक भावनाओं पर कुठाराघात करना अनपेक्षित था। राज्य की सेवा में शूद्रों को भर्ती किया जाता था और वे प्रशासनिक सेवा में ऊँचे से ऊँचे पद पर पहुंच सकते थे। चित्तौड़ का शासन प्रबंध कुम्हार जाति के व्यक्ति ‘सज्जन’ को सौंप कर चालुक्य नरेश कुमारपाल ने सामाजिक समानता का एक उदाहरण प्रस्तुत किया था। राजस्थान के शूद्र विभिन्न जातियों तथा उप-जातियों में बंटे हुए थे। लुहार, कुम्हार, माली, सुनार, सिलावटी, तम्बौली इत्यादि इनकी प्रमुख जातियाँ थी जो लगभग प्रत्येक भाग में पाई जाती थी।

    दिल्ली के दक्षिण के भू-भाग में अहीर जाति के योद्धा निवास करते थे। महाभारतकाल में इन्हें क्षत्रियों की उपशाखा माना जाता था। लेकिन जब इनका ब्राह्मणों से सम्पर्क समाप्त होने लगा तो इनकी गिनती शूद्रों में होने लगी। यद्यपि राजस्थान और गुजरात की सूचियों में अहीरों का नाम राजवंशीय राजपूत जाति में सम्मिलित किया गया है तथापि याज्ञवल्क्य स्मृति ने अहीरों की परम्पराओं को क्षत्रियों से भिन्न बतला कर इनकी एक नई पृथक् जाति घोषित कर दी थी जिसे आधुनिक समय में यादव कहकर पुकारा जाता है।

    यह भी देखे :- मध्यकालीन कृषक वर्ग

    इनके अलावा कायस्थ और खत्री भी राजस्थान में निवास करते हैं। उदयसुन्दरी नामक ग्रंथ में कायस्थों को खत्रियों का वंशज बताया गया है। इसी तरह से खत्रियों के लिए कहा जाता है कि ये क्षत्रिय पिता और ब्राह्मण माता की सन्तान हैं। कायस्थ लोग कलम के धनी माने जाते हैं जबकि खत्री व्यापार, वाणिज्य तथा लेन-देन का धन्धा करते थे।

    चौहान राज्य के उत्तरी भाग में जाट निवास करते थे। जाट भी राजपूतों के समान वीरता में कम नहीं है परन्तु उनमें अधिक धार्मिक प्रवृत्ति के नहीं होते थे जितने राजपूत होते हैं। जाटों की तरह से गूजर भी राजस्थान में काफी अधिक संख्या में निवास करते हैं। डॉ. के एम. मुन्शी ने यह सिद्ध कर दिया है कि गूजर विदेशी जातियों के वंशज है जो मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद राजस्थान में आकार बस गए थे। (देखिए के. एम. मुंशी कृत “दी ग्लोरी देट वाज गुर्जर देश) राजस्थान में पददलित जातियाँ भी निवास करती थी जिनमें मतंगा जाति सर्वाधिक प्रसिद्ध थी। चर्मकार, जुलाहे, मछवे, नाविक इत्यादि इसी जाति में सम्मिलित किए जाते हैं। इनका कार्य हर्ष के दरबारी कवि बाण के अनुसार उच्च वर्ग की सेवा सुश्रुषा करना था।

    उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि प्राचीन राजस्थान की सामाजिक व्यवस्था जाति प्रथा पर आधारित थी। जाति प्रथा का आधार जन्म समझा जाता था। व्यवसाय के आधार पर वर्ण निश्चित नहीं किए जाते थे। समाज धर्मप्रधान था, अतः राजपूत काल में धर्म प्रभावशाली बना रहा। जातियों और उप जातियों के कारण संकीर्णता का प्रसार था। भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण की वजह से समाज विभाजित और निर्बल था। इन सब दोषों ने राजस्थान को उन्नत होने से रोके रखा।

    यह भी देखे :- मध्यकालीन कर व्यवस्था

    मध्यकालीन सामाजिक स्थिति FAQ

    Q 1. प्राचीन भारत का समाज किसके अनुसार वर्गों में बंटा हुआ था?

    Ans – प्राचीन भारत का समाज वैदिककालीन परम्परा के अनुसार वर्गों में बंटा हुआ था।

    Q 2. चार वर्गों में से सर्वाधिक प्रभावशाली वर्ग कौनसा था?

    Ans – चार वर्गों में से प्रथम ब्राह्मण वर्ग सर्वाधिक प्रभावशाली था.

    Q 3. ब्राह्मणों के बाद दूसरा प्रभावशाली वर्ग किसका था?

    Ans – ब्राह्मणों के बाद दूसरा प्रभावशाली वर्ग राजपूतों का था.

    Q 4. मनुस्मृति के अनुसार वैश्य को किस किसका धन्धा करना चाहिए था?

    Ans – मनुस्मृति के अनुसार वैश्य को कृषि, पशुपालन, व्यापार तथा लेन-देन का धन्धा करना चाहिए था.

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    यह भी देखे :- मध्यकालीन भू-राजस्व प्रशासन
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