मध्यकालीन सामाजिक परिवर्तन व विशिष्ट जातियां | मध्यकालीन समाज के ढ़ाँचे में मुगल सम्पर्क से नया मोड़ आया। इसके द्वारा विभिन्न जातियों के बारे में जाना जा सकता है
मध्यकालीन सामाजिक परिवर्तन व विशिष्ट जातियां
कायस्थ
मध्यकालीन समाज के ढ़ाँचे में मुगल सम्पर्क से नया मोड़ आया। फारसी जानने के कारण मुगल दरबार और राजस्थानी राज्यों के बीच होने वाले पत्र व्यवहार में ‘कायस्थों की आवश्यकता महत्वपूर्ण समझी जाती मो भटनागर, पंचाली तथा माथुर संज्ञा के कायस्थ उस युग के कुशल प्रशासक और योद्धा थे जिनमें रत्ना पंचोली, बच्छराज, हरराय, केसरीसिंह आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। पुरातात्विक रूप से राजस्थान में कायस्थ जाति का पहला उल्लेख कंसावा के 738 ई. के लेख में हुआ है।कायस्थ लोग अपनी उत्पत्ति ब्रह्मा के पुत्र चित्रगुप्त से मानते है।
चारण :
ब्राह्मण और राजपूत जाति के गुणों का सामंजस्य हमें चारण जाति में मिलता है जिसका मध्ययुगीन सामाजिक व्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण स्थान था। चारणों का मुख्य कार्य राजपूत वीरों की ख्याति का गुणगान करना, युद्ध के अवसर पर वीर रस के गीतों द्वारा सैनिकों को प्रोत्साहित करना था।
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हिन्दू जातियों के अतिरिक्त मुसलमानों का भी इस युग में एक स्वतंत्र स्थान रहा है। इस काल में धर्म परिवर्तन के द्वारा भी कई जातियाँ इस्लाम धर्म को अनुयायी बनी जिनमें मेवात के ‘मेव’, फतेहपुर और झुंझुनूं (शेखावटी) के मुस्लिम चौहान या ‘कायमखानी’ मुख्य हैं। अनूपगढ़, पूँगल और मारोठ के मुसलमान आज भी ‘पीरदास’ कहलाते हैं। पीर’ शब्द इस्लाम धर्म और दास हिन्दू धर्म का सूचक है। काजी, सैयद, कायमखानी अपने को अन्य मुसलमानों से उच्च मानते हैं।
मध्यकालीन युग में, विशेष रूप से मुगल सम्पर्क काल में शिल्पों की वृद्धि के साथ कई जातियों का बाहुल्य हो। गया जिनमें ‘छीपे’, ‘शिकलीगर’, ‘पटवा’, ‘घांची’, ‘मोची’, ‘उठेरा’, ‘सुनार’, ‘लुहार’ आदि थे। इस युग दासों के लिए दास, दासी, गोला, गोली, चाकर आदि शब्दों का उपयोग करते थे। विवाह के अवसर पर दास और दासियों को दहेज में दिया जाता था और तब से उनका संबंध नये परिवार में हो जाता था। इस युग में विदेशों से आने वाली सभी जातियों को म्लेच्छ (अपवित्र) की संज्ञा दी गई।
भाट / जागा
भाट जाति का मुख्य कार्य राजवंशों गांव के ठाकुरों तथा श्रेष्ठ परिवारों की वंशावलिया संग्रहीत करना तथा उन्हें चहियों के माध्यम से लिपिबद्ध करना रहा है। भाटों की बहिया राजस्थान के इतिहास को टूटी कड़ियों को जोड़ने में महत्वपूर्ण सिद्ध हुई है। प्रत्येक जाति का अपना भाट होता था। माटों की तरह ही प्रत्येक जाति का ‘जागा’ होता था और अभी भी होता है। ये लोग बच्चों के जन्म, विवाह आदि उत्सवों पर परिवार को वंशावली तथा उनके पूर्वजों द्वारा किए गए प्रमुख कार्यों का बखान करते थे तथा लिपिबद्ध करते थे। जागा’ की बहियों के आधार पर उत्तराधिकारी का निर्धारण भी होता था।
कालबेलिया :
कालबेलिये नाथ मतावलम्बी एवं आदि शिव के उपासक होते हैं। चूंकि ‘शिव’ को ‘नाग’ प्रिय होते हैं, इसलिए कालबेलिये भी सांप की आराधना करते हैं। इन्हें कालबलिये (काल अर्थात् सांप, बेली अर्थात् मित्र) “सांपों का मित्र’ कहते हैं। आज भी ग्राम्यांचलों में इन्हीं कालबेलियों की मदद से लोग अपने घरों में घुसे हुए साप को पकड़वाते हैं। घर के द्वार पर बजती हुई बीन की धुन सुनते ही सांप बरबस खिंचे चले आते हैं।
ये लोग भर्तृहरि-गाथा, शिवजी का ब्यावला इत्यादि लोकाख्यानों को गाते हैं। लोकप्रिय ‘कालबेलिया’ नृत्य इन्हीं कालबेलियों की देन है। जिसकी आज देश-विदेश में धूम मची हुई है। यह नृत्य कालबेलिया युवतियों के द्वारा किया जाता है। इस नृत्य में पुरुष बीन की मनोहारी धुनें निकालते हैं तथा भपंग वादन करते हैं। नृत्यांगना ‘गुलाबो’ का नाम उल्लेखनीय है जिसने अपनी कालबेलिया नृत्यकला की बदौलत कालबेलियों को विशिष्ट पहचान दी और राजस्थान का नाम विश्व भर में ऊंचा किया। गुलाबो इस बेहतरीन नृत्यकला का प्रदर्शन अनेक देशों में कर चुकी है। सन् 2010 में यूनेस्को ने कालबेलिया नृत्य को विश्व सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को की सालाना सूची में विश्व की श्रेष्ठ कलाओं को शामिल कर उनके कलाकारों को वैश्विक पहचान और मदद दिला कर कला को सहेजने की कोशिश की जाती है।
भोपा
‘पाबू प्रकाश’ के अनुसार भोपा जाति भीलों की वशंज है। भीलों से ‘नायक’ और ‘नायकों’ से भोषों को अलग हुआ बताया जाता है। ये आज भी राजस्थान में अपनी अलग-अलग वंश परंपरा बनाये हुए हैं। भोपों की कई शाखाएं जैसे गूजर भोपा, नायक भोपा, कामड़ भोपा और भील भोपा। सभी पारंपरिक लोकगायक होते हुए भी रोटी-बेटी के व्यवहार में सर्वथा भिन्न हैं। संपूर्ण राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली और गुजरात में भोपों को देखा जा सकता है।
जोधपुर, नागौर, बीकानेर, चूरू, सीकर, झुंझुनूं और जयपुर से श्रीगंगानगर के बीच जो भोपा लोक गायक मिलते हैं, उनकी अलग पहचान है। ये पाबूजी के भोपा होते हैं अर्थात् पाबूजी राठौड़ की कहानी को गाकर सुनाना और इसी आधार पर अपनी वंश परंपरा को कायम रखना इनकी विशेषता है। एक जगह से दूसरी जगह घूमते-फिरते रहने वाली यह जाति गांव या बस्ती से बाहर खुले में अपना डेरा लगाती है। आमतौर पर दो-चार डेरे यानि परिवार एक साथ रहते हैं। डेरा लगाने का भी एक खास तरीका होता है। ये लोग अपने तम्बू या ‘सरकी’ को अर्द्धगोलाकर आकृति में बनाते हैं, ताकि बरसात और आंधी तूफान से बचाव हो सके। इसी कारण इनको ‘सरकी बंद’ कहा जाता है।
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पाबूजी भोपाओं के आराध्य देव हैं। शक्ति रूपा मातेश्वरी और भैरवदेव की भी पूजा करते हैं। भोपा हिंदू होते हैं तथा केवल हिंदुओं के ही त्यौहार मनाते हैं। झगड़े फसाद की स्थिति में भी मामला भोपा बिरादरी द्वारा सुलझाया जाता है। इसके लिये पंचायत बिठायी जाती है। ‘लाग’ और ‘ढो’ अर्थात् दोनों पक्षों को एक जगह बिठाया जाता है। ‘मुचलके’ भरवाये जाते है। यह ‘मुचलका’ नगद या पेशगी होती है। मुचलका भर देने के बाद दोनों पक्षों पर पाबंदी लग जाती है। ऐसी स्थिति में तेज आवाज में बोलना मात्र भी पंचायत का अपमान माना जाता है। पंचायत कई दिनों तक चल सकती है। तब तक पंचगणों और मुखियाओं का खाने-पीने का पूरा खर्चा विवाद वाले दोनों पक्षों को भुगतना पड़ता है।
कठपुतली नट
कठपुतली नट, कठपुतलियों के माध्यम से नाट्यकला का प्रदर्शन करते हैं। किसी समय राजस्थान में कठपुतली नटों की संख्या काफी थी किंतु अब ये कम संख्या में रह गये हैं। विक्रमादित्य के समय ‘सिंहासन बत्तीसी’ नामक एक सिंहासन था जिसकी 32 पुतलियां रात को अपने राग रंग से सम्राट को रिझाती थी। पिरचेल जैसे विद्वान का कहना है कि विश्व की समस्त पुतलियों का उद्गम स्थल भारत है। भारत में कठपुतली कला की सात शैलियां हैं, इनमें से राजस्थान की सूत्र संचालित पुतलियां, दक्षिण भारत की बम्बोलोटम पुतलिया, आंध्र की छाया एवं काष्ठ पुतलियां, बंगाल की छड़ आदि पुतलियां प्रमुख हैं। राजस्थान की कठपुतलियां भाटों तथा नटों द्वारा नचाई जाती हैं। ये नट पहले राजा-महाराजाओं के दरबार की शोभा बढ़ाते थे। धीरे-धीरे इनका सामाजिक और आर्थिक स्तर गिरता चला गया।
धावड़िया / घाड़ाती
डाका डालने वालों को धावड़िया कहते थे। ये मुख्य रूप से गुर्जर, मीणा, जाट और राजपूत होते थे। घाड़ाती घाड़ा डालने से पहले उस व्यक्ति को सूचना भिजवाते थे तथा उसके मकान के आगे सूचना चस्पा कर देते थे और निश्चित तारीख को ही वे डाका डाला करते थे। दूंगजी, जवाहरजी, करमामीणा आदि प्रसिद्ध धावड़िया हुए हैं। राजस्थान में इस व्यवस्था को सीमित करने का श्रेय मोहनलाल सुखाड़िया को है।
नौची
भारतीय समाज में घरेलू और सार्वजनिक उत्सवों पर नृत्य करने एवं गानेवालियों (गौनहारियों का एक अलग वर्ग था। उत्तर भारत में इनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, कोई भी शुभकार्य इनके बिना अधूरा माना जाता था, राजस्थान में इन्हें रामजनी, भगतण और उर्दू में तवायफ कहते थे। 18वीं शती के अंत और 20वीं शती में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के अंग्रेज अफसरों को भी सामाजिक उत्सवों पर नाचने वालियों की आवश्यकता पड़ी तो इसी वर्ग के लोगों को बुलाने लगे। वे लोग इन्हें नौच गर्ल्स कहते थे, इसी नौच गर्ल्स का हिन्दी रूप नौची हो गयी। ये स्वतंत्र थी, अपने नृत्य संगीत का व्यवसाय करती थी। इनके अलग-अलग समूह थे, समूह का प्रधान एक बुजुर्ग महिला होती थी जो नायिका कहलाती थी। वह अपने घर व व्यवसाय का प्रबंध संभालती थी।
राजस्थान की हस्तशिल्प जातियां
राजस्थान की हस्तशिल्प जातियों में पिंजारा, बुनकर, नीलगर, सुनार, बरकसाज, ठठेरे, सिकलीगर, लुहार, मणिहारे, लखारे, बढ़ई, गाँछी, बोला, सिलावट, पटवे आदि सम्मिलित किये जाते हैं। इनका विशद् वर्णन ‘राजस्थान की हस्तशिल्प जातियां एवं हस्तशिल्प’ अध्याय में किया गया है।
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मध्यकालीन सामाजिक परिवर्तन व विशिष्ट जातियां FAQ
Ans – पुरातात्विक रूप से राजस्थान में कायस्थ जाति का पहला उल्लेख कंसावा के 738 ई. के लेख में हुआ है.
Ans – ब्राह्मण और राजपूत जाति के गुणों का सामंजस्य हमें चारण जाति में मिलता है.
Ans – लोकप्रिय ‘कालबेलिया’ नृत्य कालबेलियों की देन है.
Ans – भोपा जाति भीलों की वशंज है.
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