मध्यकालीन भू-राजस्व प्रशासन | राजस्व कर तथा भूमि व्यवस्था, जिनका मध्ययुगीन राजस्थान से घनिष्ठ संबंध था, एक राज्य से दूसरे राज्य में विभिन्न रूप था
मध्यकालीन भू-राजस्व प्रशासन
राजस्व कर तथा भूमि व्यवस्था, जिनका मध्ययुगीन राजस्थान से घनिष्ठ संबंध था, एक राज्य से दूसरे राज्य में विभिन्न रूप था। भूमि के विभागों में खालसा, हवाला, जागीर, भोम और शासन प्रमुख थे। खालसा भूमि राजस्व के लिए दीवान के निजी प्रबन्ध में होती थी। हवाला भूमि की देखरेख हवलदार करते थे। जागीर भूमि के भागों का सीधा उपज का भाग मन्दिर, मठ, चारण, ब्राह्मण आदि को पुण्यार्थ दिया जाता था। भूमि राजस्व (माल जिहाती अथवा माल-ओ जिहात) राज्य की आय का सबसे प्रमुख साधन था। राजस्व प्रशासन निम्न प्रकार था :-
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दीवान
राजपूत रियासतों में मुगल प्रभाव से प्रशासनिक तंत्र के प्रमुख का पदनाम ‘दीवान’ रखा गया। यह मुख्य रूप से वित्त एवं राजस्व सम्बन्धी मामलों पर नियंत्रण रखता था। इसका अपना एक बहुत बड़ा विभाग था, जिसमें अनेक उपविभाग होते थे, जैसे दीवान-ए-खालसा (केन्द्रीय भूमि सम्बन्धी प्रशासनिक देखभाल), दीवान-ए-जागीर, महकमा-ए-पुण्यार्थ आदि। दीवान से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह राज्य की आमदनी बढ़ाकर विभिन्न खर्चों की पूर्ति करेगा। इसे न्यायिक, वित्तीय सैनिक और प्रशासनिक अधिकार प्राप्त थे।
आमिल
परगने में आमिल सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारी था। आमिल का मुख्य कार्य परगने में राजस्व की वसूली करना था। भूमि राजस्व की दरें लागू करने व वसूली में अमीन, कानूनगो, पटवारी आदि उसकी सहायता करते थे। आमिल को अनेक प्रकार के कागजात रखने पड़ते थे, जैसे- रबी व खरीफ की फसलों में राजस्व की दरें (दस्तूर अमल), जमा व हासिल (जब्ती व जिन्सी दोनों प्रकार से), इजारा भूमि (ठेकेदारी राजस्व व्यवस्था) आदि।
हाकिम
यह परगने का मुख्य अधिकारी था, जो परगने की शान्ति व्यवस्था, न्याय एवं भू-राजस्व सम्बन्धी कार्य देखता था। जयपुर में इसे ‘फौजदार’ और कोटा में ‘हवालगिर’ कहा जाता था। साहणे यह भू-राजस्व में राज्य का भाग निश्चित करने वाला अधिकारी था।
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याददाश्त
यह पट्टे की एक किस्म होती थी, जिसमें शासक द्वारा जागीरदार को जागीर स्वीकृत की जाती थी।
तफेदार
यह कर्मचारी गांव में राज्य द्वारा वसूले जाने वाले राजस्व का हिसाब रखता था।
सायर दरोगा
यह परगने में चुंगीकर वसूल करने वाला अधिकारी था, जिसकी नियुक्ति राज्य करता था। इसकी सहायता के लिए ‘अमीन’ होते थे।
एक ही परगने में ‘जब्ती’ (नाप कर), बंटाई (उपज का निश्चित भाग) व कनकृत प्रणालियां प्रचलित होती थी। सन, कपास, नील, तम्बाकू, अफीम, गुदगरीनू आदि फसलों पर राजस्व जब्ती प्रणाली द्वारा निश्चित किया जाता था और नकदी में वसूल किया जाता था। अन्य फसलों पर ‘जिन्स’ (उपज का भाग) प्राप्त किया जाता था। जो जिन्सी प्राप्त होती थी उसका कुछ भाग तो परगने में ही व्यापारियों को बेच दिया जाता था जिसे ‘बिधोती’ कहते थे और बाकी का ‘अम्बारों’ (गोदामों) में भर दिया जाता था।
कृषकों की भूमि पर अलग-अलग राजस्व भार निकालने में पटेल, पटवारी, कानूनगो व चौधरी आमिल की सहायता करते थे। इसके एवज में उन्हें उपज का कुछ हिस्सा व जमीन मिलती थी। चौधरियों को जो भूमि दी जाती थी वह नानकार, पटवारी को दी गई भूमि विरसा व पटेल को मिली भूमि विसोध कहलाती थी। इसके अलावा इन्हें गांव के हासिल में से दस्तूर के प्रतिमण चौथाई सेर अनाज मिल जाता था।
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मध्यकालीन भू-राजस्व प्रशासन FAQ
Ans – खालसा भूमि राजस्व के लिए दीवान के निजी प्रबन्ध में होती थी.
Ans – राजपूत रियासतों में मुगल प्रभाव से प्रशासनिक तंत्र के प्रमुख का पदनाम ‘दीवान’ रखा गया था.
Ans – परगने में आमिल सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारी था.
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