मध्यकालीन केन्द्रीय प्रशासन

मध्यकालीन केन्द्रीय प्रशासन | केंद्रीय शासन व्यवस्था का निर्माण मुगल साम्राज्य के केंद्रीय स्वरूप के संचालन के लिए किया गया था। इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए कई अधिकारी होते थे

मध्यकालीन केन्द्रीय प्रशासन

शासक वर्ग : मध्ययुगीन राजपूताना के नरेश छोटी से छोटी इकाई के राजा होते हुए भी अपने आपको प्रभुतासम्पन्न शासक मानते थे। इसी भावना से प्रेरित होकर वे महाराजाधिराज, राजराजेश्वर, नृपेन्द्र आदि विरुदों (उपाधियों) को धारण करते थे। अपने वंशीय महत्त्व से शासक अपने राज्य के सर्वेसर्वा थे। राज्य का शासन, न्याय वितरण, उच्च पदों पर नियुक्ति, दण्ड, सैन्य संचालन, सन्धि, आदेश आदि के सूत्र का सम्पूर्ण आधार इनके व्यक्तित्व में निहित था।

धर्म की रक्षा करने और प्रजा के पालन का उत्तरदायित्व इनके कन्धों पर था। इन कार्यों से उन्हें सतत् उद्बोधित करने के लिए उनकी प्रजा प्रायः उन्हें ‘धर्मावतार’ तथा ‘माई-बाप’ कहती थी। देश की रक्षा का भार उनके ऊपर होने से विशेष रूप से उन्हें ‘खुम्माण’ पद से विभूषित किया जाता था। सभी प्रकार की शक्ति उनमें निहित होने से वे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करते थे। अलबत्ता सामन्तों ने कभी-कभी, राज्य के हित को दृष्टिगत रखते हुए उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप भी किया, जैसा कि प्रताप के संबंध में सर्वविदित है।

नरेशों का सर्वाधिकार होने से उनके द्वारा सम्मानित रानियां भी बड़ी प्रभावशील होती थी। वे भी राज्य कार्य में भाग लेती थी और विशेष रूप से युद्ध के अवसर पर अपने पति और परिवार के लिए प्रेरणा की स्रोत बनती थी। अवसर आने पर, विशेष रूप से, अपने पुत्र के अल्पवयस्क होने पर, राजमाताएं राज्य का कार्य संभालती थी। हंसाबाई, कर्मवती और भट्टियानी रानी के उदाहरण सर्वविदित हैं।

मध्ययुगीन शासक अपने पूर्वजों की भाँति धर्म सहिष्णु भी होते थे। विशेषतः शैव, शाक्त अथवा वैष्णव होते हुए भी इतर धर्मावलम्बियों के प्रति इनकी नीति धर्म सहिष्णु होती थी। जोधपुर की हवाला बहियों तथा जयपुर के स्याह हजूर’ के उल्लेखों से स्पष्ट है कि राजस्थान के नरेश जिस प्रकार हिन्दू धर्मावलम्बी साधु और सन्तों का सम्मान करते थे, उसी प्रकार वे काजियों, मौलवियों, दादूपंथियों, खाखियों, नानक शाहियों आदि के प्रति उदार थे। राजस्थान में मुगल विरोध काल में भी मुसलमानों पर अत्याचार होने के उल्लेख नहीं मिलते।

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इस काल के शासक केवल शान्ति स्थापना और देश रक्षा तथा प्रजापालन को ही अपने जीवन का लक्ष्य नहीं समझते थे। वे अपने राज्य की सर्वोन्मुखी/समग्र उन्नति में भी रुचि लेते थे। वे साहित्य, कला, उद्योग, व्यापार, वाणिज्य आदि की उन्नति में लगे रहते थे। बाद में जब राजपूताना के शासक मुगलों के अधीन हो गए तो उनके अधिकारों, कार्यों आदि में काफी परिवर्तन हो गया। राजपूत शासक वर्ग एवं मुगलों के मध्य औपचारिक भाषा में संवाद कायम हुआ, जो आपसी पत्र व्यवहार द्वारा होता था। कुछ ऐसे हो राजकीय स्तर के आदेश-पत्र निम्नलिखित थे

मध्यकालीन केन्द्रीय प्रशासन
मध्यकालीन केन्द्रीय प्रशासन

शासक वर्ग से संबंधित राजकीय आदेश

फरमान :

फरमान मुगल बादशाह द्वारा जारी शाही आदेश होते थे। कभी ये सार्वजनिक तो कभी विशेष रूप से मनसबदारों के लिए होते थे।

परवाना :

महाराजा द्वारा अपने अधीनस्थ को जो आदेश जारी किया जाता था वह ‘परवाना’ कहलाता था।

निशान :

बादशाह के परिवार के किसी सदस्य द्वारा मनसबदार को अपनी मोहर के साथ जो आदेश जारी किए गए, वे ‘निशान’ कहलाए।

अर्जदाश्त :

एक प्रकार का लिखित प्रार्थना पत्र होता था जो कि राजपूत राजाओं द्वारा सम्राट तथा शहजादों की सेवा में प्रेषित किया जाता था।

खतूत महाराजगान व अहलकारान :

इनके द्वारा देशी शासकों, मराठों, पिण्डारियों, मुगल दरबार एवं पड़ोसी राज्यों के साथ शासन सम्बन्धी पत्र व्यवहार हुआ करता था।

खरीता :

एक राजा का दूसरे राजा के साथ जो पत्र व्यवहार होता था वह ‘खरीता’ कहलाता था।

मन्सूर :

यह एक प्रकार का शाही आदेश होता था जो कि बादशाह की मौजूदगी में शहजादे द्वारा जारी किया जाता था। उत्तराधिकार युद्ध (1658 ई.) के समय शाहजादा औरंगजेब ने अपने हस्ताक्षरित शाही आदेश जारी किए, वही मन्सूर कहलाए। के मध्य पत्रव्यवहार को ‘रुक्का’ कहा जाता था।

रुक्का :

राज्य के अधिकारियों के मध्य पत्र-व्यव्हार को “रुक्का” कहा जाता था.

वकील रिपोर्ट :

मनसबदार, जागीरदार एवं अन्य सरदार मुगल दरबार में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करते थे, जिनको ‘वकील’ कहा जाता था। वे अपने रियासती स्वामी से सम्बन्धित खबरों का संकलन कर दरबार की गतिविधियाँ अपनी रियासत को भेजा करते थे। उनके द्वारा भेजी गई इन सूचनाओं को ‘वकील रिपोर्ट’ कहा जाता था।

वाक्या :

इसके तहत बादशाह या राजा की व्यक्तिगत एवं राजकार्य सम्बन्धी गतिविधियाँ तथा राजपरिवार में सदस्यों की सामाजिक रस्म, व्यवहार, शिष्टाचार आदि का वर्णन दर्ज किया जाता था।

सनद :

यह एक प्रकार की स्वीकृति होती थी, जिसके द्वारा मुगल सम्राट अपने अधीनस्थ राजा को जागीर प्रदान करता था।

मंत्री वर्ग:

सर्वोपरि राजसत्तात्मक शासन में भी राजपूताना में मंत्रिमण्डल के उल्लेख मिलते हैं, जिसकी नियुक्ति स्वयं शासक करता था। ये कभी वंशानुक्रम से आने वाले सदस्यों से बनता था और कभी इनमें नयी नियुक्तियां भी होती थी। पूर्व मध्यकाल में, सारणेश्वर शिलालेख से विदित होता है कि मेवाड़ में ‘अमात्य’ (मुख्यमंत्री), ‘सन्धिविग्रहिक’ (युद्ध और सन्धि का मंत्री), ‘अक्षपटलिक’ (पुरालेख मंत्री), ‘बंदिपति’ (मुख्य धुक), ‘भिषगाधिराज’ (मुख्य वैद्य) आदि मंत्रिमण्डल के सदस्य थे।

प्रधान :

मुगलों के आगमन से तथा उनके साथ सन्धि होने या उनके दरबार के सम्पर्क में आने से मध्यकालीन शासन में कुछ परिवर्तन आये और विशेष रूप से कुछ नये पदों का सृजन हुआ तथा पुराने पदों को मुगल ढंग से कहा आने लगा। प्रधान पद राजा से दूसरी श्रेणी में था जो शासन, सैनिक और न्याय सम्बन्धी कार्यों में उनकी सहायता करता था। प्रधान को मुख्यमंत्री या मंत्रीप्रवर कहते थे। मारवाड़ तथा अन्य राज्यों में भूमि अनुदानों पर प्रधान के हस्ताक्षर होना आवश्यक था। एक अच्छे प्रधान के लिए एक अच्छा प्रशासक और चतुर दरबारी होना आवश्यक था। जयपुर रियासत के प्रधानमंत्री को ‘मुसाहिब’ कहा जाता था। कोटा और बूंदी में दीवान, मेवाड़, मारवाड़ और जैसलमेर में प्रधान और बोकार्नर मुखत्यार कहते थे। मेवाड़ में सलूम्बर के रावत को प्रधान का पद वंशानुगत प्राप्त था, जिसे ‘भांजगड़’ कहते थे।

दीवान :

दीवान मुख्य रूप से अर्थ-विभाग का अध्यक्ष होता था। जहाँ प्रधान नहीं होते थे, दीवान प्रधान का कार्य भी करते थे। इस पदाधिकारी के कामों में मुख्य रूप से आर्थिक कार्य, कोश और कर संग्रह के कार्य थे। इनके नीचे कई कारखाने, जात के दरोगा, रोकड़िया, मुँशी, पोतदार आदि होते थे। राज्य में नियुक्तियां, पदोन्नति, स्थानान्तरण आदि सम्बन्धी निर्णय उसकी सम्मति के बिना नहीं लिए जाते थे। उसकी स्वतन्त्र मुहर होती थी जिस पर उसका नाम खोदा जाता था। राजा की अनुपस्थिति में जब राज्य शासन की बागडोर दीवान के हाथों में रहती थी, तब उसे ‘देश दीवान’ कहा जाता था।

प्रधान या दीवान सारे प्रशासकीय विभागों के कार्यों पर निगाह रखता था। सभी विभागों की आमद व खर्च का हिसाब, परगनों के राजस्व संबंधी कागजात, बक्शी के महकमें के कागजात व परगनों में नियुक्त आमिलों व फौजदारों की रिपोर्टस् उसके पास पहुँचती थी। उसके दफ्तर ‘दीवान-ए-हजूरी’ में सब कागजात सुरक्षित रखे जाते थे। वह इस कागजातों के आधार पर राजा को राज्य की स्थिति से अवगत कराता था। इसके दफ्तर में एक ‘महकमा-ए- बकायात’ भी होता था जो परगनों के अफसरों को राजस्व की दरें, बकाया की वसूली, परगनों के खजानों की जमा, खजाना हजूरी में भेजी जाने वाली रकम आदि के बारे में दिशा निर्देश भेजता था।

बक्शी :

बक्शी प्रमुख रूप से सैन्य विभाग का अध्यक्ष होने के नाते सेना के वेतन, रसद, सैनिकों के प्रशिक्षण, भर्ती, अनुशासन आदि को देखता था युद्ध में घायल सैनिकों व पशुओं के उपचार एवं उनकी सुरक्षा का प्रबन्ध करता था। वह सैनिकों का वेतन भी निश्चित करता था। वेतन सम्बन्धी पत्र उसके विभाग से प्रधान या दीवान के कार्यालय में जाते थे। उसके निकट सहायक अधिकारी ‘नायब बक्शी कहलाते थे। ‘खबर नवीस’ और ‘किलेदार’ भी इसके अधीन होते थे। इसे कहीं कहीं ‘फौज बक्शी’ भी कहते थे। बक्शी को उसके कार्यों में ‘बक्शी जागीर’, ‘बक्शी देश’ व ‘बक्शी परगना’ सहायता करते थे। मुशरिफ, जखीरा, दरोगा तोपखाना, तहसीलदार जखीरा आदि उसके मातहत होते थे, किन्तु बक्शी प्रधान सेनापति नहीं होता था, यह दायित्व तो शासक स्वयं निभाता था।

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खान सामां

वैसे तो वह दीवान के अधीन होता था, परन्तु राजपरिवार के अधिक निकट होने से वह सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति समझा जाता था। उसके सुपुर्द निर्माण कार्य, वस्तुओं का क्रय, राजकीय विभागों के सामान की खरीद और संग्रह होते थे। राजदरबार तथा राजप्रासाद से सम्बन्धित सभी व्यक्तियों और कार्यों से उसका संबंध होता था।

कोतवाल

जन सुरक्षा और शान्ति सम्बन्धी व्यवस्था बनाये रखने के लिए कोतवाल का उल्लेख मिलता है। उसके मुख्य कार्य चोरी डकैती का पता लगाना, वस्तुओं के दामों को निर्धारित करना, नापतोल पर नियन्त्रण रखना, चौकसी का प्रबन्ध करवाना, मार्गों की देखभाल करना, साधारण झगड़े निपटाना आदि थे। मुगल कोतवाल के कार्यों में और राजस्थान के कोतवाल के कार्यों में बहुत समानता थी। राज्यों की राजधानियों व परगनों के बड़े कस्बों में ‘कोतवाल’ नामक अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। कोतवाल का प्रमुख दायित्व नगर में शांति एवं व्यवस्था बनाए रखना होता था।

खजांची :

राज्यों में खजांची होते थे जो कोश रखने और रुपये जमा करने और व्यय करने का ब्यौरा रखते थे। उसका ईमानदार और विवेकी होना गुण समझा जाता था। मेवाड़ में इस अधिकारी को ‘कोषपति’ कहा जाता था। मितव्ययता खजांची का आवश्यक गुण था ताकि वह खजाने में वृद्धि कर सके।

ड्योढ़ीदार

यह महल की सुरक्षा, देखरेख व निरीक्षण का कार्य करने वाला अधिकारी था। मुत्सद्दी राजस्थान की रियासतों में प्रशासन का संचालन करने वाले अधिकारी ‘मुत्सद्दी’ कहलाते थे।

अन्य विभागीय अध्यक्ष

उपरोक्त अधिकारियों के अतिरिक्त छोटे-मोटे विभाग होते थे जिनके अधिकारी अपने विभाग के कार्यों से जाने जाते थे। उदाहरणार्थ :- ‘दरोगा-ए-डाक चौकी’ डाक प्रबन्ध रखता था, ‘दरोगा-ए-सायर’ दान वसूली करता था, ‘मुशरिफ’ अर्थ-विभाग का सचिव होता था, ‘वाक्या-नवीस’ सूचना भेजने के विभाग पर था, ‘दरोगा-ए-आबदार’ खाना पानी का दरोगा था, ‘दरोगा-ए-फराशखाना’ सामान के विभाग का अध्यक्ष था। ‘दरोगा-ए-नक्कारखाना’ बाजे और नगाड़ों के विभाग के ऊपर था। इनके अतिरिक्त जवारखाना, शिकारखाना, दारुखाना, अस्तबल, गौशाला, रसोड़ा आदि पर भी अलग-अलग विभागीय अधिकारी होते थे।

सामन्त वर्ग :

शासकों का महत्त्वपूर्ण सहयोगी वर्ग सामन्तों का होता था, जो या तो शासक की वंश-प्रणाली का होता था या दूसरे प्रान्त से आकर उनके साथ मिलजुलकर रहता था। जब राज्य पर आपत्ति आती थी तो वे अपने अनुयायियों सहित राज्य के लिए मर-मिटने को उद्यत रहते थे। वार्षिक कर देकर वे राजकीय कोश की पूर्ति भी करते थे। कार्य के तथा अधिकार के विचार से वे राज्य के कार्यों में बाधक दिखायी देते थे। निर्बल शासकों के समय इस प्रकार की स्थिति की अधिक सम्भावना थी।

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मध्यकालीन केन्द्रीय प्रशासन FAQ

Q 1. फरमान किसके जारी शाही आदेश होते थे?

Ans – फरमान मुगल बादशाह द्वारा जारी शाही आदेश होते थे.

Q 2. ‘परवाना’ किसे कहते है?

Ans – महाराजा द्वारा अपने अधीनस्थ को जो आदेश जारी किया जाता था वह ‘परवाना’ कहलाता था.

Q 3. ‘खरीता’ किसे कहा जाता है?

Ans – एक राजा का दूसरे राजा के साथ जो पत्र व्यवहार होता था वह ‘खरीता’ कहलाता था.

Q 4. “रुक्का” किसे कहा जाता था?

Ans – राज्य के अधिकारियों के मध्य पत्र-व्यव्हार को “रुक्का” कहा जाता था.

Q 5. मुख्य रूप से अर्थ-विभाग का अध्यक्ष कौन होता था?

Ans – दीवान मुख्य रूप से अर्थ-विभाग का अध्यक्ष होता था.

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