महाराणा उदयसिंह | उदय सिंह ने कुम्भलगढ़ में रहकर शक्ति संगठित कर बनवीर पर आक्रमण कर 1540 ई. में पुनः अपने पैतृक राज्य का स्वामी बना
महाराणा उदयसिंह
बनवीर से स्वाभिमानी मेवाड़ी सरदार घृणा करते थे। वे एक-एक कर कुम्भलगढ़ चले गये और उदयसिंह के नेतृत्व में शक्ति का संगठन करने लगे। कोठारिया, केलवा, बागोर आदि ठिकानों के जागीरदारों ने मिलकर उसे राजगद्दी पर भी बिठा दिया। सोनगरे अखेराज की पुत्री से विवाह होने पर उदयसिंह के समर्थकों की संख्या बढ़ गई। अवसर पाकर उदयसिंह ने बनवीर पर आक्रमण कर दिया, 1540 ई. में उदयसिंह ने बनवीर से चित्तौड़ पुनः प्राप्त किया।
बनवीर के बारे में दो मत प्रचलित हैं एक मत के अनुसार वह युद्ध करता हुआ मारा गया और दूसरे मत के अनुसार वह दक्षिण की ओर भाग गया और नागपुर के भौंसले उसी के वंशज है।’ 1540 ई. में उदयसिंह अपने पैतृक राज्य का स्वामी बना।
महाराणा उदयसिंह और अफगान शक्ति :
शेरशाह 1543 ई. में मारवाड़ विजय के बाद चित्तौड़ की ओर बढ़ा। राणा उदयसिंह को अभी चित्तौड़ का काम हाथ में लिये केवल तीन ही वर्ष हुए थे। राणा ने किले की कुजियाँ शेरशाह के पास भेज दी जिससे सन्तुष्ट होकर आक्रमणकारी लौट गया। केवल उसने ‘खवास खाँ’ को अपना राजनीतिक प्रभाव बनाये रखने के लिए चित्तौड़ रखा। जब शेरशाह की मृत्यु हो गयी तो नाममात्र के प्रभाव को भी चित्तौड़ से समाप्त करने के लिए वहाँ से अफगान अधिकारी को निकाल दिया।
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महाराणा उदयसिंह का हाजी पठान से युद्ध :
हाजी पठान शेरशाह सूर का प्रबल सेनापति था, अकबर के गद्दी नशीनी के समय वह मेवात (अलवर) का हाकिम था। जब अकबर की ओर से पीर मुहम्मद सरवानी (नासिरुल्मुल्क) को उस पर भेजा गया, तो वह भागकर अजमेर चला गया। राव मालदेव ने उसे लूटने के लिए पृथ्वीराज जैतावत को भेजा। हाजीखां ने महाराणा उदयसिंह से सहायता की याचना की तो महाराणा सैसैन्य अजमेर आ पहुंचा, जिससे मालदेव की सेना वापस लौट गई।
इस सहायता के बदले में महाराणा ने हाजीखां से ‘रंगराय पातर’ (वेश्या) जो उसकी प्रेयसी थी, को मांगा। इसी को लेकर आपस में झगड़ा होने लगा, तो हाजीखां ने राव मालदेव से सहायता मांगी। मालदेव ने अपने सरदारों के साथ 1500 सेना उसकी सहायतार्थ भेजी।
27 जनवरी, 1557 को दोनों सेनाओं के मध्य अजमेर के पास ‘हरमाड़ा का युद्ध’ हुआ, जिसमें हाजीखां की विजय हुई। उदय सागर तालाब के निर्माण द्वारा लम्बे-चौड़े मैदानी भाग में खेती की सुविधा पैदा कर दी। महाराणा ने चित्तौड़ से अलग हटकर 1559 ई. में उदयपुर नगर की स्थापना की तथा उसे राजधानी बनाया।
अकबर और उदयसिंह : बदायूँनी और अबुलफजल के अनुसार यहाँ का महाराणा न केवल अपनी ही स्वतन्त्रता को थामे हुए था, बल्कि अन्य शासकों को भी बचाये रखने के लिए प्रेरित करता रहता था। बूँदी, सिरोही, डूंगरपुर आदि उसके निकटतम सहयोगी थे। मालवा के बाजबहादुर ने 1562 ई. में राणा की शरण ली थी।
मेड़ता के जयमल को, जिसे शर्फउद्दीन हुसैन ने परास्त किया था, राणा ने चित्तौड़ में आश्रय दे रखा था। उदयसिंह के ये ढंग सीधे मुगल सत्ता को चुनौती दे रहे थे। इस परिस्थिति में अकबर का चित्तौड़ पर आक्रमण करना आवश्यक हो गया।
मुगल-मेवाड़ युद्ध का तात्कालिक कारण :
अकबरनामा व अमरकाव्य वंशावली के अनुसार एक दिन अकबर ने हँसी में धौलपुर के मुकाम पर, राणा के पुत्र शक्तिसिंह को, जो राणा अप्रसन्न होकर मुगल सेवा में रहता था, सुनाकर यह कहा कि बड़े-बड़े जमींदार उसके अधीन हो गये, परन्तु राणा उदयसिंह अब तक अधनी नहीं हो पाया है। इससे शक्तिसिंह ने चित्तौड़ पर किये जाने वाले आक्रमण का संकेत प्राप्त कर लिया।
वह बिना कहे ही मुगल खेमे से चल दिया और चित्तौड़ पहुँच कर अकबर के विचारों की सूचना महाराणा को दे दी। महाराणा ने सभी सरदारों को बुलाकर इस संबंध में मन्त्रणा की। इसके द्वारा यह निश्चिय किया गया कि जयमल मेडतिया और फत्ता सिसोदिया पर तो चित्तौड़ की रक्षा का भार रखा जाये और स्वयं राणा नवस्थापित राजधानी उदयपुर और उसके आस-पास वाली गिरवा की बस्तियों की रक्षा करे।
प्रबन्ध के उपरान्त महाराणा उदयसिंह ने रावत नेतसी आदि कुछ सरदारों सहित गिरवा की ओर प्रस्थान किया। वीरविनोद के अनुसार राणा द्वारा चित्तौड़ छोड़ने की घटना को लगभग हमारे समय के सभी लेखकों ने राणा की कायरता बताया है। परन्तु डॉ. गोपीनाथ शर्मा राणा उदयसिंह को कायर या दोषी नहीं मानते क्योंकि उदयसिंह ने बनवीर, मालदेव, हाजी खान पठान आदि के विरूद्ध युद्ध लड़कर अदम्य साहस का परिचय दिया।
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चित्तौड़ के घेरे और पतन की घटनाएँ :
अकबर मांडलगढ़ के मार्ग से 23 अक्टूबर, 1567 ई. को चित्तौड़ पहुँचा। हुसैन कुलीखाँ राणा का पीछा करने वाले दल का नेता था। वह चारों ओर घूमकर कोरे हाथ लौटा, क्योंकि राणा ने अपने परिवार को तो गिरवा की पहाड़ियों में सुरक्षित छोड़ा था और वह स्वयं राजपीपला से लेकर बाहरी गिरवा में संगठन के लिए घूमता-फिरता था। अकबर ने तीन मोर्चों पर साबात तथा सुरंगे लगाने का आदेश दिया।
दो सुरंगों में से एक में 120 मन बारुद और दूसरे में 80 मन बारुद भरकर उड़ायी गयी। इन सुरंगों ने दोनों ओर के बुर्जों को बड़ी क्षति पहुँचायी और दोनों पक्षों के सैनिक भी हताहत हुए। एक रात को दीवार की मरम्मत कराते समय जयमल अकबर की संग्राम बन्दूक से मारा गया।
अकबर से युद्ध में जयमल और कल्ला राठौड़ हनुमानपोल व भैरवपोल के बीच और रावत व पत्ता रामपोल के भीतर वीरगति को प्राप्त हुए ‘जौहर की रस्म’ हुई। यह चित्तौड़ दुर्ग का ‘तृतीय शाका’ था। प्रातः होते-होते राजपूत वीर केसरिया बाना पहनकर शत्रु का मुकाबला करने चल पड़े। ईसरदास चौहान ने एक हाथ से अकबर के हाथी का दाँत पकड़ा और दूसरे से सूँड़ पर खंजर मारकर गुण ग्राहक बादशाह को अपना वीरोचित अभिवादन दिया।
25 फरवरी, 1568 को अकबर ने किले पर अधिकार कर लिया। जयमल और पत्ता की वीरता पर मुग्ध होकर अकबर ने आगरा जाने पर हाथियों पर चढ़ी हुई उनकी पाषाण की मूर्तियाँ बनवा कर किले के द्वार पर खड़ी करवाई। चित्तौड़ के भीषण नरसंहार के लिए अकबर का नाम आज भी कलंकित है।
महाराणा उदयसिंह का देहान्त :
चित्तौड़ पतन की घटना के बाद महाराणा अधिक समय तक जीवित नहीं रह सका। जब वह कुम्भलगढ़ से, जहाँ वह बहुधा रहता था, गोगुन्दा आया तो दशहरे के बाद वह बीमार पड़ा और वहीं गोगुन्दा में 28 फरवरी, 1572 ई. में उनका देहान्त हो गया। वहाँ उसकी छतरी बनी हुई है।
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महाराणा उदयसिंह FAQ
Ans – 1540 ई. में उदयसिंह ने बनवीर से चित्तौड़ पुनः प्राप्त किया था.
Ans – शेरशाह 1543 ई. में मारवाड़ विजय के बाद चित्तौड़ की ओर बढ़ा.
Ans – 27 जनवरी, 1557 को मध्य अजमेर के पास ‘हरमाड़ा का युद्ध’ हुआ था.
Ans – उदयपुर नगर की स्थापना 1559 ई. में महाराणा उदय सिंह ने की थी.
Ans – अकबर मांडलगढ़ के मार्ग से 23 अक्टूबर, 1567 ई. को चित्तौड़ पहुँचा.
Ans – महाराणा उदय सिंह का देहांत 28 फरवरी, 1572 ई. को हुआ था.
Ans – महाराणा उदय सिंह का देहांत गोगुन्दा में हुआ था.
Ans – महाराणा उदय सिंह की छतरी गोगुन्दा में बनी हुई है.
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