जय सिंह प्रथम | महाराजा भावसिंह की मृत्यु के बाद आमेर का शासक जयसिंह प्रथम को बनाया गया था. राज्याभिषेक के समय उनकी उम्र मात्र 11 वर्ष ही थी
जय सिंह प्रथम
यह महासिंह एवं रानी दमयन्ती का पुत्र था। मानसिंह की मृत्यु के बाद भावसिंह (1614-1621 ई) आमेर को गद्दी पर बैठा उसके कोई पुत्र नहीं था। जब जयसिंह लगभग दो वर्ष का ही था कि उसकी माता रानी दमयन्ती ने जयसिंह की शिक्षा-दीक्षा का अच्छा प्रबन्ध किया था। उसको फारसी, तुर्की, उर्दू, हिन्दी और संस्कृत का साधारण जान पहले ही करा दिया गया था जिसको उसने आगे चलकर समृद्ध किया। जीजाबाई को भाँति रानी दमयन्ती ने अपने पत्र को बचपन से ही धार्मिक और व्यावहारिक शिक्षा देकर इन विषयों में अधिक जानकारी प्राप्त करने की क्षमता पैदा कर दो।
जब भावसिंह की मृत्यु हुई तो वह दौसा से आमेर लाया गया और राज्य का स्वामी घोषित किया गया। इस समय उनकी आयु 11 वर्ष की थी। इनका राज्याभिषेक 1621 ई. को किया गया था. इन्होनें 1621-1667 तक आमेर की गद्दी संभाली थी. वे आमेर के शासक के रूप में मुग़ल दरबार में सेनापति के पद पर सर्वाधिक सेवाएं (46 वर्ष) देने वाले शासक रहे है. मुग़ल बादशाह शाहजहां द्वारा 1637 ई. में जयसिंह को मिर्जाराजा की उपाधि से सम्मानित किया गया. उसे तीन मुगल सम्राटों-जहाँगीर, शाहजहाँ तथा औरंगजेब की सेवा में रहने का अवसर प्राप्त हुआ। आमेर की गद्दी पर बैठते ही मुगल सम्राट जहाँगोर ने जयसिंह को 3 हजार जात व 1500 सवारों का मनसबदार बनाकर सम्मानित किया। सर्वप्रथम उसकी नियुक्ति 1623 ई. में मलिक अम्बर के विरुद्ध, जो अहमदनगर के राज्य की रक्षा मुगलों के विरुद्ध कर रहा था की गयी। जिसमें उसने अपने अदम्य साहस और रणकौशल का परिचय दिया।
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सम्राट शाहजहाँ के काल में उसे 4000 का मनसबदार बनाकर सम्मानित किया और इसे महावन के जाटों को दबाने के लिए प्रभावित भेजा 1630 ई. में उसके पद में भी वृद्धि की गयी। 1631 में दक्षिण में खानेजहां लोदी के विद्रोह को दबाया, 1634 में पेरेन्दे के घरे में साहस दिखाया और दौलताबाद में शाहजी भोंसले को पीछे धकेला। सम्राट शाहजहाँ राजा के इन साहसो कार्यों से हुआ और उसके मनसब को 5000 कर दिया। जयसिंह को राजा के साथ कन्धार भेजा गया। शाहजहाँ ने उसे “मिर्जा राजा’ को पदवी से विभूषित किया। 1651 ई. में जयसिंह की नियुक्ति सादुल्लाखों के साथ कन्धार के युद्ध के लिए की गयी जहाँ उसने मुगल सेना का संचालन अग्रभाग में रहकर किया। सुलेमान शिकोह के साथ काबुल की सूबेदारी दी गई।

मुगल उत्तराधिकार संघर्ष
1656 ई. में शाहजहां के चारों पुत्रों में उसके जीवित रहते हुए उत्तराधिकार संघर्ष छिड़ा। जय सिंह प्रथम शाही सेना के साथ रहा। बंगाल के सूबेदार शाहशुजा ने जब विद्रोह किया तो शाहजहां ने मिर्जा राजा जयसिंह को मुगल सेना का सेनापति बनाकर उसे दबाने के लिए भेजा। शाही सेना का शुजा के साथ बनारस के पास बहादुरपुर में युद्ध हुआ, जिसमें शाहशुजा को हार हुई। इस पर मुगलों को 2 करोड़ रुपए हाथ लगे। बादशाह ने इस सेवा के उपलक्ष में मिर्जा राजा जयसिंह का • मनसब 6000 जात और 6000 सवार दोअस्पा से सिहअस्पा पद दिया।
इस वक्त 16 अप्रैल, 1658 को औरंगजेब व मुराद की सम्मिलित सेना ने बादशाह द्वारा भेजी सेना को जो जोधपुर के जसवंतसिंह राठौड़ के सेनापतित्व में भेजी गई थी, धरमत के युद्ध में हरा दिया। दारा ने एक बार और प्रयत्न किया कि दक्षिणी सेना को आगे बढ़ने नहीं दे लेकिन 30 मई, 1658 को सामूगढ़ के युद्ध में फिर बादशाही सेना हारी। इस युद्ध में विजय औरंगजेब की रही। बादशाह के सभी सरदारों को यह स्पष्ट दिखाई देने लगा कि अब बादशाह औरंगजेब ही होगा। अत: उन्होंने औरंगजेब की अधीनता में रहना ही उचित समझा जयसिंह ने भी अपना भला इसी में समझा कि औरंगजेब का पक्ष स्वीकार करे।
अतः जब औरंगजेय आगरा में अपने पिता को 9 जून 1658 को कैद करने के बाद दिल्ली की ओर जा रहा था तब 25 जून, 1658 को मथुरा में जयसिंह उससे मिला औरंगजेब इसका बड़ा आदर सत्कार किया और एक करोड दाम की जागीर देने का वचन दिया। जयसिंह का औरंगजेब से इस वक्त मिलना बहुत लाभप्रद रहा। वह बादशाह का विश्वासपात्र बन गया और दरबार में इसका प्रभाव व महत्व बढ़ गया जो उसके अंतिम समय तक रहा।” जब औरंगजेब का मुकाबला मुगल शहजादे दारा से मार्च, 1658 में देवराई (अजमेर) में हुआ तो जयसिंह औरंगजेब की ओर से मुगल सेना के अग्रभाग का नेतृत्व कर रहा था। अंत में विजय औरंगजेब की हुई और दारा सिंध की ओर भाग गया।
मिर्जा राजा ने दारा शिकोह का पीछा सिंधु नदी तक किया कच्छ के रण की विकट परिस्थितियों का भयानक सामना करना पड़ा। जयसिंह के पुत्र रामसिंह ने दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह को श्रीनगर के पास बंदी बना लिया। स्वयं द्वारा भी बंदी बनाया गया और प्राणदण्ड का भागीदार बना। बादशाह औरंगजेब ने पिता-पुत्र की सेवाओं से प्रसन्न होकर जयसिंह को । करोड़ दाम आय की जागीर व 1 लाख रुपए नकद तथा रामसिंह को ढाई लाख आय की जागीर प्रदान की।
दक्षिण की सूबेदारी
औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की ओर गया जहाँ मराठे शिवाजी के नेतृत्व में शक्तिशाली हो रहे थे। तब औरंगजेब ने मिर्जा राजा जयसिंह की नियुक्ति दक्षिण में की शिवाजी को चारों ओर से घेरने के लिए यहां जयसिंह ने तूफानी लड़ाई लड़ी थी।
पुरन्दर की संधि:
11 जून, 1665 ई. को शिवाजी और जयसिंह के बीच सन्धि हुई जिसे पुरन्दर की साँध कहते हैं। इस संधि के अनुसार यह निश्चय हुआ कि —
- 35 किलों में से 23 किले मुगलों को सुपुर्द कर दिये जायें। इस तरह 40 लाख की आमदनी का भाग शिवाजी से ले लिया गया।
- 12 छोटे दुर्ग शिवाजी के लिए रखे जायें।
- शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5 हजार का मनसबदार बनाया जाय और शिवाजी को दरबारी सेवा से मुक्त समझा जाए
- परन्तु जब कभी शिवाजी को मुगल सेवा के लिए निमन्त्रित किया जाय तो वह उपस्थित हो।
- उपरोक्त शर्तों के अतिरिक्त शिवाजी ने यह भी सुझाव दिया कि यदि कोंकण में 4 लाख हूण वार्षिक का प्रदेश और बालाघाट में 5 लाख हूण का शुल्क बादशाह उसे देना स्वीकार कर ले और मुगलों की भावी बीजापुर विजय के बाद भी ये प्रदेश उसके अधिकार में रहने दिये जाएं तो वह बादशाह को 40 लाख हूण 13 वार्षिक किस्तों में देगा।
- इसके अलावा शिवाजी ने मुगल अधीनता स्वीकार की।
इस संधि के समय फ्रांसीसी यात्री बर्नियर भी मौजूद था। 14 जून तक शिवाजी जयसिंह के साथ रहे। यहीं उसका मनूची के साथ काफी महत्वपूर्ण वार्तालाप हुआ। इस सौंध से मराठा क्षति का अनुमान शिवाजी को आगरा से पुनः लौटने के बाद ही हो पाया। ऐसी संधि आगे जाकर शिवाजी ने फिर अपने जीवन में कभी नहीं की। शिवाजी का आगरा आगमन पुरन्दर की संधि में सम्मिलित नहीं था।
1666 में मिर्जा राजा जयसिंह एवं उनके पुत्र रामसिंह की गारंटी से शिवाजी आगरा आये और उन्हें जयपुर भवन में ठहराया गया। किन्तु औरंगजेब ने उन्हें पांच हजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। जो मनसबदारों की तीसरी पंक्ति थी शिवाजी से हारे हुए जसवन्तसिंह 7000 मरसबदारों की पंक्ति में शिवाजी के आगे खड़े थे। इस अपमान से नाराज होकर शिवाजी दरबार से उठकर चले गये शिवाजी को जयसिंह के पुत्र रामसिंह की देखरेख में आगरा के जयपुर भवन में कैद किया गया परन्तु वे चतुराई से अपने सौतेले भाई हीरोजी को अपने स्थान पर लेटाकर फरार हो गये।
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बीजापुर का असफल अभियान
मिर्जा जयसिंह की दक्कन की सूबेदारी का उद्देश्य दो समस्याओं से निजात दिलवाना था। एक शिवाजी और दूसरी बीजापुर। पहली समस्या सुलझाई जा चुकी थी। जयसिंह ने पहले शिवाजी को बीजापुर से पृथक किया। शिवाजी से संधि कर 2,000 मराठा सवार और 7000 पैदल सैनिक प्राप्त किए। मराठा सैनिकों के दल का नेतृत्व दक्षिण के द्वितीय शिवाजी’ नाम से प्रसिद्ध ‘नेताजी पाल्कर’ कर रहा था।
40,000 शाही सेना के साथ 20 नवंबर, 1765 को मिर्जा जयसिंह ने बीजापुर की ओर प्रयाण किया। लेकिन बीजापुर की आदिलशाही सैन्य एवं रणनीतिक तैयारी के आगे मुग़ल सेना की एक न चल सकी। अंततः मिर्जा जयसिंह को 5 जनवरी, 1766 को पुनः लौटना पड़ा। दक्षिण में रहते हुए मिर्जा राजा ने भूमि बन्दोबस्त किया। 28 अगस्त, 1668 ई. को बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) के पास मिर्जा राजा जयसिंह का देहावसान हो गया। जयपुर के कच्छवाहा वंश में इन्होंने सर्वाधिक 46 वर्ष तक शासन किया। औरंगजेब इन्हें ‘बनवा’ कहा करता था।
कला एवं साहित्य :
जयसिंह के बनवाये हुए आमेर के महल तथा जयगढ़ और औरंगाबाद में जयसिंहपुरा उसकी वास्तुकला के प्रति रुचि को प्रदर्शित करते हैं। उसके समय के महल और गढ़ उत्तर-मुगलकालीन राजपूत-मुगल शैली के अच्छे प्रतीक हैं। इसी प्रकार मिर्जा राजा अनेक भाषाओं को जानते थे। उसके दरबार में हिन्दी का प्रसिद्ध कवि ‘बिहारीलाल’ था जिसने बिहारी सतसई की रचना द्वारा हिन्दी भाषा की अनुपम सेवा की। जयसिंह ने उसकी कविता का इतना सम्मान किया कि उसके एक-एक दोहे पर उसे एक-एक स्वर्ण मुद्रा प्रदान की और जागीर देकर उसकी प्रतिष्ठा बढ़ायी। इसी कवि का भानजा ‘कुलपति मिश्र’ था। इसी का एक दरबारी कवि ‘रामकवि’ था जिसका ग्रन्थ ‘जयसिंह-चरित्र’ बड़ा प्रसिद्ध है। इसके राज्यकाल में और भी अनेक काव्य और भक्ति के ग्रन्थों की रचना हुई जिसमें धर्म प्रदीप, भक्ति रत्नावली, भक्ति निर्णय, भक्ति निवृत्ति, हरनकर रत्नावली आदि विशेष उल्लेखनीय है।
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जय सिंह प्रथम FAQ
Ans – जय सिंह प्रथम का राज्याभिषेक
Ans – जय सिंह प्रथम का राज्याभिषेक 11 वर्ष की उम्र में किया गया था.
Ans – जय सिंह प्रथम के पिताजी का नाम महासिंह था.
Ans – जय सिंह प्रथम की मां का नाम रानी दमयन्ती था.
Ans – मिर्जा राजा जयसिंह का देहवासन 28 अगस्त, 1668 ई. को बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) के पास हुआ था.
Ans – जय सिंह प्रथम ने 46 वर्षों तक आमेर पर शासन किया था.
Ans – औरंगजेब जयसिंह ‘बनवा’ कहा करता था.
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