हम्मीर देव चौहान | रणथम्भौर के चौहानों का इतिहास वास्तविक रूप में हम्मीर देव चौहान की गौरवमयी कीर्ति से सुशोभित हुआ। हम्मीर देव जयसिम्हा चौहान का तीसरा पुत्र था
हम्मीर देव चौहान
रणथम्भौर के चौहानों का इतिहास वास्तविक रूप में हम्मीर देव चौहान की गौरवमयी कीर्ति से सुशोभित हुआ। हम्मीर देव जयसिम्हा चौहान का तीसरा पुत्र था। संभवतः सभी पुत्रों में योग्यतम होने के कारण जयसिम्हा ने उसका राज्यारोहण उत्सव 1282 ई. में अपने जीवनकाल में हो सम्पन्न कर दिया था। अमीर खुसरो एवं बरनी अलाउद्दीन खिलजी के रणथम्भौर संबंधी अभियानों का वर्णन देते हैं। इस वर्णन पर हम्मीर महाकाव्य (नयनचंद्र सूरि), सुर्जन चरित्र, हम्मीर रासो (जोधराज) तथा हम्मीर हठ (चंद्रशेखर) से भी कुछ प्रकाश पड़ता है।
हम्मीर देव चौहान की दिग्विजय नीति :
राणा हम्मीर देव चौहान ने दिग्विजय की नीति अपनाई उसने समस्त उत्तर-पश्चिम के राजपूत शासकों को जीता। उसने सर्वप्रथम भीमरस के शासक अर्जुन को परास्त कर धार के शासक भोज परमार को परास्त किया। तदन्तर वह उत्तर की ओर चित्तौड़, आबू, वर्धनपुर, पुष्कर, चम्पा होता हुआ स्वदेश लौटा। इस अभियान में त्रिभुवनगरी के शासक ने उसकी अधीनता स्वीकार की। इस विजय अभियान से लौटने के बाद हम्मीर ने ‘कोटीयजन’ (अश्वमेध जैसा ही) का आयोजन किया। राजपुरोहित ‘विश्वरूप’ था।
हम्मीर देव चौहान और जलालुद्दीन खिलजी
जलालुद्दीन खिलजी ने 1290 ई. में झांई के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया जिसमें उसे सफलता मिली। इस दुर्ग को बचाने का हम्मीर ने प्रयत्न किया, परन्तु गुरुदास सैनी, जिसने चौहान सेना का नेतृत्व किया था, मारा गया। झांई की विजय से जलालुद्दीन खिलजी का साहस बढ़ गया और उसने आगे बढ़कर रणथम्भौर दुर्ग का घेरा डाल दिया। अमीर खुसरो’ एवं बरनी की ‘तारीख-ए-फिरोजशाही के अनुसार दुर्ग को जीतने के जलालुद्दीन के समस्त प्रयास असफल रहे। अन्त में सुल्तान ने दुर्ग की घेराबंदी उठाने तथा वापस लौट चलने का आदेश दिया। सुल्तान जलालुद्दीन ने कहा कि- ‘ऐसे 10 दुर्गों को भी मुसलमान के एक बाल के बराबर महत्त्व नहीं देता। ज्योंही सुल्तान की सेना लौट गयी कि हम्मीर ने झाइन पर पुन: अपना अधिकार स्थापित कर लिया। जलालुद्दीन खिलजी के अभियानों का वर्णन अमीर खुसरो ने मिफ्ता-उल-फुतूह’ में किया है।
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हम्मीर देव चौहान और अलाउद्दीन खिलजी :
अलाउद्दीन खिलजी एक साम्राज्यवादी शासक था तो दूसरी ओर हम्मीर देव चौहान भी महत्त्वाकांक्षी शासक था। हम्मीर ने कुल मिलाकर 17 युद्ध लड़े थे जिनमें 16 युद्धों में वह विजयी रहा। 17वें तथा अंतिम युद्ध में वह दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की सेना से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
रणथम्भौर दुर्ग पर आक्रमण के कारण
हम्मीर ने राज कर देना बंद कर दिया था। उसने अलाउद्दीन के मंगोल विद्रोहियों को आश्रय दिया था जिनके नेता मुहम्मदशाह एवं केहब्रू थे। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर विजय को अपनी उत्तरी भारत विजय का एक अंग बनाया। दुर्ग पर आक्रमण के बहाने भी उसे मिल गये। बरनी के अनुसार एक कारण तो यह था कि हम्मीर ने राज कर देना बन्द कर दिया था और दूसरा यह था कि उसने मंगोल विद्रोहियों को आश्रय दे रखा था। ये मंगोल विद्रोही मीर मुहम्मदशाह और केहब्रू के नेतृत्व में जालौर से उलुगखों और नुसरतखों के खेमे से भागकर हम्मीर की शरण में आ गये थे। हम्मीर ने तो मुहम्मदशाह को ‘जगाना’ की जागीर भी दी। जब ये विद्रोही हम्मीर के दरबार में चले गये तो सुल्तान ने उसे विद्रोहियों को लौटा देने को लिखा हम्मीर ने इनको लौटा देना अपनी शान और वंश मर्यादा के विरुद्ध समझा और युद्ध के लिए तैयार हो गया। ‘हम्मीर हठ’ के अनुसार मुहम्मदशाह को सुल्तान की मराठा बेगम ‘चिमना’ से प्यार हो गया था। मुहम्मदशाह एवं बेगम दोनों मिलकर अलाउद्दीन को समाप्त करना चाहते थे।
हम्मीर महाकाव्य के अनुसार जब हम्मीर ने मंगोलों को लौटाने के संबंध में कोरा जवाब दिया तो अलाउद्दीन ने 1299 ई. में उलुगखाँ, अलपखाँ और वजीर नुसरतखाँ के नेतृत्व में एक बहुत बड़ी सेना रणथम्भौर विजय के लिए भेजी। उन्होंने अपनी सेना का पड़ाव बनास के किनारे डाल दिया। इस सेना ने रणथम्भौर की कुंजी’ झाई पर अधिकार कर लिया। ‘हम्मीर महाकाव्य’ में लिखा है कि हम्मीर इस समय कोटियज्ञ समाप्त कर ‘मुनिव्रत’ में व्यस्त था। इस कारण स्वयं न जाकर हम्मीर ने अपने दो सैनिक अधिकारियों को, जिनके नाम भीमसिंह और धर्मसिंह थे, शत्रु का मुकाबला करने भेजा। राजपूत सेना ने बनोस के किनारे पड़ी हुई शत्रु सेना पर हमला बोल दिया जिसमें तुकों की हार हुई। राजपूत सेना का एक भाग, जो धर्मसिंह के नेतृत्व में था, लूट का माल लेकर रणथम्भौर लौट गया और भीमसिंह की टुकड़ी धीरे-धीरे दुर्ग की ओर चली। अलपखाँ ने लौटती हुई भीमसिंह की फौज पर धावा बोल दिया। हिन्दुवाट घाटी पर घमासान युद्ध हुआ जिसके फलस्वरूप भीमसिंह और उसके सैकड़ों साथी रणस्थल पर खेत रहे। उलुगखों ने राजपूतों का उस समय पीछा करना उचित नहीं समझा, वह दिल्ली लौट गया।
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इस युद्ध की रणथम्भौर में प्रतिक्रिया
हम्मीर महाकाव्य व डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार जब भीमसिंह की मृत्यु के समाचार का पता हम्मीर को चला तो उसे बड़ा क्षोभ हुआ। उसने धर्मसिंह को इस पराभव का उत्तरदायी ठहराया और उसे अन्धा कर दिया। उसके पद पर उसके भाई भोज को नियुक्त किया। भोज उस समय की बिगड़ी हुई स्थिति को न सँभाल सका। धर्मसिंह ने ऐसे समय में हम्मीर को धन-संग्रह करने का आश्वासन दिलाया, यदि उसे इस संबंध में अधिकार दिये जाएँ। धर्मसिंह, जिसके हृदय में अपने अपमान का बदला लेने की भावना छिपी हुई थी, राज्य का सर्वेसर्वा बन गया। उसने लोगों पर कई कर लगा दिये और बलात् उनसे धन-संग्रह करने लगा। इस नीति से हम्मीर की प्रजा में असन्तोष बढ़ गया। हम्मीर ने दण्डनायक के पद पर रतिपाल को नियुक्त किया जो उपयुक्त व्यक्ति नहीं था। भोजराज हम्मीर द्वारा अपनी सेवा से निकाले जाने पर नाराज होकर अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में चला गया। उसने सुल्तान को रणथम्भौर पर आक्रमण के लिए उकसाना प्रारम्भ कर दिया।
उलुगखाँ का विफल प्रयत्न :
जब अलाउद्दीन को इस पराभव का पता चला तो उसने एक बड़ी सुसज्जित सेना रणथम्भौर पर आक्रमण करने के लिए भेजी जिसका नेतृत्व उलुगखों और नुसरतखों को सौंपा गया। इस बार खिलजी सेनाध्यक्ष हिन्दुवाट पार कर झाइन लेने में सफल हो गया। झाई विजय के बाद उलूग खां ने मेहलनसी नामक दूत के साथ हम्मीर के पास अलाउद्दीन खिलजी का संदेश पुनः भिजवाया।
अलाउद्दीन का आना और दुर्ग का पतन
ज्योंही अलाउद्दीन को इस स्थिति का पता चला तो वह एक बड़ी सेना लेकर घटनास्थल पर उपस्थित हुआ याहिया बिन सरहिन्दी के अनुसार हम्मीर के पास 12000 घुड़सवार, हजारों पदाति तथा अनेक हाथो अमीर खुसरो के अनुसार हम्मीर के पास 10000 घुड़सवार थे। अमीर खुसरो अपनी रचना ‘खजाईन-उल-फुतुह’ में इस अभियान का आंखों देखा वर्णन करते हुए लिखा है कि सुल्तान ने इस आक्रमण में पाशेब, मगरबी व अदा की सहायता ली। अलाउद्दीन ने लगभा एक वर्ष तक रणथम्भौर दुर्ग में घेरा डाले रखा, लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली। अंत में उसने कूटनीति द्वारा काम लिया अलाउद्दीन ने हम्मीर के सेनापति रतिपाल, सेनानायक रणमल तथा एक अधिकारी सर्जुनशाह को लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया हम्मीर के सेनानायक रतिपाल और अलाउद्दीन में सन्धि-वार्ता चली सुल्तान ने किले को हम्मीर से छीनकर रतिपाल को देने का लोभ देकर अपनी ओर मिला लिया। रतिपाल जब किले में गया जो उसने रणमल को भी अपनी ओर मिला लिया।
रणथम्भौर का साका
दुर्ग का धेरा बहुत दिनों से चल रहा था, जिससे दूर्ग में रसद आदि की कमी हो गई। दुर्ग वालों ने अब अन्तिम निर्णायक युद्ध का विचार किया। राजपूतों ने केशरिया वस्त्र धारण करके शाका किया। राजपूत सेना ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए। भीषण युद्ध करना प्रारम्भ किया। दोनों पक्षों में आमने-सामने का युद्ध था। एक ओर संख्या बल में बहुत कम राजपूत थे तो दूसरी ओर सुल्तान की कई गुणा बडी सेना, जिनके पास पर्येति युद्धादि सामग्री एवं रसद थी।
राजपूतों के पराक्रम के सामने मुसलमान सैनिक टिक नहीं सके वे भाग छूटे भागते हुए मुसलमान सैनिको के झण्डे राजपूतों ने छीन लिए व वापस राजपूत सेना दुर्ग की ओर लौट पड़ी। दुर्ग पर से रानियों ने मुसलमानों के झण्डो को दुर्गे की ओर आते देखकर समझा की राजपूत हार गए अतः उन्होंने जोहर कर अपने आपको अग्नि को समर्पित कर दिया।
किले में प्रवेश करने पर जौहर की लपटों को देखकर हम्मीर देव चौहान को अपनी भूल का ज्ञान हुआ। उसने प्रायश्चित करने हेतु किले में स्थित शिव मन्दिर पर अपना मस्तक काट कर शंकर भगवान के शिवलिंग पर चढा दिया।
अमीर खुसरो इस अभियान में अलाउद्दीन के साथ था। उसने लिखा है कि जब घायल अवस्था में मुहम्मदशाह एवं केन् (मंगोल नेता) को अलाउद्दीन के सामने लाया गया तो वे घावों के दर्द से कराह रहे थे। अलाउद्दीन ने उनसे पूछा कि यदि तुम्हारी चिकित्सा करवा दी जाए और तुम्हें जीवनदान दे दिया जाए तो तुम क्या करोगे? उन्होंने उत्तर दिया कि सबसे पहले तो हम तुम्हारी हत्या करेंगे उसके बाद हम्मीर देव के किसी वंशज को रणथम्भौर की गद्दी पर बिठाकर उसकी सेवा करेंगे। अलाउद्दीन ने कहा कि काश ये विचार मेरे प्रति होते।’ अलाउद्दीन ने उन दोनों की हत्या करवा दी। बाद में रणमल और रतिपाल को अलाउद्दीन के सामने लाया गया। अलाउद्दीन ने उनसे कहा “जब तुम अपने सहधर्मी एवं स्वामी शासक के ही नहीं हो सकते तो मेरे क्या हो सकते हैं।’ उनको भी हत्या कर दी गई। अमीर खुसरो आगे लिखता है कि रणथम्भीर में अलाउद्दीन ने अपनी धर्मान्यता दिखाते हुए मंदिरों, मूर्तियों को तोड़ने का आदेश दिया। आगे लिखता है कि कुफ़ का घर इस्लाम का घर हो गया है।’
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हम्मीर देव चौहान FAQ
Ans – रणथम्भौर के चौहानों का इतिहास वास्तविक रूप में हम्मीर देव चौहान की गौरवमयी कीर्ति से सुशोभित हुआ.
Ans – हम्मीर देव जयसिम्हा चौहान का तीसरा पुत्र था.
Ans – हम्मीर देव चौहान का राज्याभिषेक 1282 ई. में किया गया था.
Ans – हम्मीर ने अलाउद्दीन के साथ 17 युद्ध लड़े थे.
Ans – हम्मीर देव 17वें तथा अंतिम युद्ध में वह दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की सेना से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ था.
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