जागीरदारी प्रथा (सामन्ती प्रथा)

जागीरदारी प्रथा (सामन्ती प्रथा) | सामन्तवाद भूमिदान से जुड़ी हुई व्यवस्था है। सामन्तों को उनकी हैसियत के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटा गया

जागीरदारी प्रथा (सामन्ती प्रथा)

सामन्तवाद भूमिदान से जुड़ी हुई व्यवस्था है। भारत में सर्वप्रथम भूमिदान देने की परम्परा सातवाहन शासकों ने शुरू की प्रारंभ में भूमिदान ब्राह्मणों, बौद्ध भिक्षुओं आदि की दिया गया और वे केवल उस भूमि से प्राप्त राजस्व का ही उपयोग कर सकते थे। गुप्तकाल में आकर राजस्व के साथ-साथ अन्य अधिकारों का भी भूमिग्राही को हस्तांतरण किया जाने लगा। ब्राह्मणों, भिक्षुओं, माँदरों के साथ-साथ अब राज्य के उच्च पदाधिकारी भी वेतन के बदले भूमि प्राप्त करने लगे। वे अपनी-अपनी सैन्य टुकड़ियाँ रखने लगे, कानून-व्यवस्था को देखने लगे। इन भूमि मालिकों को ‘सामन्त’ कहा गया। सामन्तों को उनकी हैसियत के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटा गया। हर्षकालीन भारत सामन्ती भारत’ ही था।

सर्वप्रथम कर्नल जेम्स टॉड ने यहाँ की सामन्त व्यवस्था को इंग्लैण्ड की फ्यूडल व्यवस्था के समान मानते हुए उल्लेख किया है। व्यापक शोध कार्य के बाद यह स्पष्ट हो गया कि यहाँ को सामन्त व्यवस्था कर्नल टॉड द्वारा उल्लेखित पश्चिम के फ्यूडल व्यवस्था के समान स्वामी (राजा) और सेवक (सामन्त) पर आधारित नहीं थी। राजस्थान की सामन्त व्यवस्था रक्त संबंध एवं कुलीय भावना पर आधारित प्रशासनिक और सैनिक व्यवस्था थी। भारतीय इतिहास में जब राजपूतों का उदय (7वीं सदी) हुआ तो यह व्यवस्था एक अलग ही रूप में विकसित हुई।

समस्त राजपूत राजवंश ‘भाई-बंध कुल ठोक प्रणाली पर आधारित थे अर्थात् राजपूतों के विभिन्न राजकुलों ने ज्यों-ज्यों अपने राज्यों की स्थापना की उसके साथ ही अपने राज्य में व्यवस्था बनाए रखने तथा बाहरी आक्रमणों से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए अपने बन्धु-बांधवों को अपने राज्य में से भूमि के टुकड़े उन्हें दे दिए। राज्य का केन्द्रीय भाग (खालसा) राजा के पास तथा सीमावर्ती भाग उसके बंधु-बांधवों को दिया गया। बाद में अपने स्वजनों एवं सम्बन्धियों के साथ-साथ विश्वस्त सेनानायकों, उच्च प्रशासनिक अधिकारियों को भी भूमि दी जाने लगी।

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लगभग प्रत्येक राजपूत राज्य का संगठन कुलीय भावना पर आधारित होता था, राजा कुल का नेता होता था सामन्त अपने आपको कुलीय सम्पत्ति (राज्य) का हिस्सेदार एवं संरक्षक मानते थे। उनका राजा के साथ बन्धुत्व एवं रक्त का संबंध था, स्वामी और सेवक का नहीं शासन कार्य में सामान्यतः प्रमुख सामन्तों की सलाह ली जाती थी, उत्तराधिकारी के चयन में सामन्तों की सहमति अनिवार्य थी।

युद्ध के समय सामन्त राजा की सहायता करते थे, क्योंकि ये अपनी पैतृक संपत्ति की रक्षा करते थे। सामन्तों और राजा के बीच सम्बोधन सम्मानसूचक शब्दों से होता था, जैसे अपने सामन्तों को ‘भाईजी’ या ‘काकाजी’ जैसे आदरसूचक शब्दों से सम्बोधित करता तो सामन्त राजा को ‘बापजी’ कहकर सम्बोधित करते थे क्योंकि वह कुल का नेता था। कुल मिलाकर मुगल प्रभाव से पूर्व राजस्थान में सामन्त व्यवस्थ सौहाईपूर्ण वातावरण में चल रही थी।

जागीरदारी प्रथा (सामन्ती प्रथा)
जागीरदारी प्रथा (सामन्ती प्रथा)

सामंती व्यवस्था पर मुगल प्रभाव

मुगल राजपूत सम्बन्धों से राजपूताना की परम्परागत सामन्तीय व्यवस्था में परिवर्तन आने लगा। मुगलों से पूर्व सामन्त नये उत्तराधिकार के मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे लेकिन जब से अकबर ने ‘टीका प्रथा’ शुरू की तो नये उत्तराधिकार की मान्यता सिर्फ मुगलों की इच्छा पर निर्भर हो गई। जिससे सामन्तों के महत्त्व में कमी आ गई। इसके अतिरिक्त जब मुगल राजपूत शासकों के संरक्षक हो गये तो अपनी सुरक्षा लिए सामन्तों पर उनकी निर्भरता भी समाप्त हो गई।

स्वामी-सेवक संबंध

मुगलों से पूर्व राजा और उसके सामन्तों के बीच भाई-बन्धु का संबंध था। सामनों में निष्ठा की भावना थी, वे हमेशा अपने राजा के लिए प्राणों की आहूति देने को तैयार थे लेकिन मुगल आधिपत्य से स संबंधों में खटास आ गई तथा संबंध स्वामी और सेवक में बदलने लगे। ऐसे नये शासक का सामन्त विरोध नहीं कर सकते थे। इस प्रकार जो सामन्त व्यवस्था एक टेंट का स्वरूप लिये हुए थी, वहीं अब मध्यकाल में मनसबदारी व्यवस्थ से प्रभावित होकर पदसोपान व्यवस्था के निकट पहुँच गई, मूल स्वरूप यथावत् बना रहा।

उत्तराधिकारी शुल्क

सामन्त व जागीरदार की मृत्यु के बाद उक्त जागीर के नये उत्तराधिकारी से यह कर वसूल किया जाता था। उत्तराधिकारी शुल्क एक प्रकार से उक्त जागीर के पट्टे का नवीनीकरण करना था। जागीरदार की मृत्यु की सूचना पाते हो राजा अपने दीवानी अधिकारों को कुछ कर्मचारियों के साथ उस जागीर में भेजता यदि उत्तराधिकारी शुल्क इन्हें जमा नहीं कराया जाता तो जागीर जब्त करने का निर्देश दीवान को दिया जाता था।

जब राजपूत शासकों को मुगलों का संरक्षण मिल गया तो शासकों ने सामन्तों के उत्तराधिकार को भी नियंत्रित किया। इसके तहत नव मन्त खड़गबन्धी (तलवार बंधाई) का दस्तूर शासक की उपस्थिति में करे और नये सामन्त इसके उपलक्ष्य में हुक्मनामा, ‘कैदखालसा’, ‘नजर या नजराना पेश करे, की प्रथा प्रारंभ हुई। यह नया सामन्ती उत्तराधिकार शुल्क था जोधपुर राज्य में यह शुल्क सर्वप्रथम मोटा राजा उदयसिंह (1583-1595 ई) ने लागू किया जो ‘पेशकशी’ कहलाता था। महाराजा अजीतसिंह ने इस हुक्मनामा के साथ ‘तागीरात’ नामक नया कर जोड़ दिया। उदयपुर जयपुर राज्यों द्वारा भी ‘नजराना’ वसूल किया जाने लगा। नजराना ठिकाने के राजस्व का 1/7वां हिस्सा होता था नजराना दिए जाने के बाद राजा ठिकाने के पट्टे को उसके नाम कर देता था। जैसलमेर एकमात्र ऐसी रियासत थी जहां उत्तराधिकारी शुल्क नहीं लिया जाता था।

अन्य शुल्क

नजराना के अलावा ‘तागीरात’ एवं ‘मुस्सदी खर्च’ जागीरदारों के लिए अनिवार्य कर दिया गया, इन्हें न दिए जाने पर जागीर जब्त भी की जा सकती थी। राजकुमारियों के विवाह पर ‘न्यौत’ के रुपये वसूले जाते थे जो सामन्तों ने अपनी लड़कियों के विवाह पर जनता से ‘चंबरी कर के रूप में वसूला। इसके अलावा सामन्तों को गनीम बराड़ (युद्ध के अवसर पर लिया जाने वाला कर, घरगुन्ती बराड़ (घर का कर), हल बराड़ (कृषि कर), न्योत बराड़ (विवाह का कर) आदि के रूप में भी महाराणा को एक बड़ी धनराशि देनी पड़ती थी। ‘न्योत बराड’ आरम्भ में जागीर की वार्षिक आय का दसवा भाग होता था, इसलिए इसे ‘दशोद’ भी कहते थे।

बीकानेर में पट्टायत को पेशकशी को रकम के भुगतान के अतिरिक्त अपने पट्टे के क्षेत्र के निवासियों से राज कर्मचारियों द्वारा ‘धुआं भाछ’ (गृह कर), ‘रुखवाली’ ‘भाऊ’ (सुरक्षा कर), ‘हबूब’ (विविध) ‘धान की चौथाई’ (जमा किये अनाज पर चौथाई कर) आदि कर वसूल किये जाने में सहयोग प्रदान करना पड़ता था। महाराजा सूरतसिंह ने 1794 ई. में पट्टायतों के असवारों को सेवा के बदले में ‘घोड़ा रेख’ के नाम से धनराशि एकत्रित करना आरम्भ कर दिया था। इसकी दर प्रति असवार 100 रुपये थी।

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रेख :

जब मुगलों को परिपाटी के अनुकूल राजपूत शासकों द्वारा सामन्तों की जागीर की उपज का वार्षिक अनुमान निर्धारित किया गया तो उसे ‘रेख’ कहा गया। ‘रेख’ जो कि जागीर की वार्षिक आय थी, के आधार पर सामन्तों के सैनिक बल का अनुपात स्थापित होने लगा।’ मारवाड़ में रेख शब्द का प्रयोग ‘पट्टा रेख’ और ‘भरतु रेख’ के रूप में किया जाता था। पट्टा रेख’ का तात्पर्य जागीर की उस अनुमानित वार्षिक आय से था जिसका शासक द्वारा प्रदान किये गये जागीर पट्टे में उल्लेख किया जाता था। ‘भरतु रेख’ वह रकम थी जो जागीरदार ‘पट्टा रेख’ के आधार पर राज्य खजाने में जमा करवाता था।

महाराजा सूरसिंह (1595-1619 ई) के काल में सर्वप्रथम जागीरदारों के पट्टों में उनको दिये गये गांव की रेख (आमदनी) दर्ज की जाने लगी। 1755 ई. में महाराजा विजयसिंह ने एक हजार की आमदनी पर उनसे तीन सौ रुपये के दर से ‘मतालबा’ नामक कर देना आरम्भ किया। यही कर बाद में ‘रेख’ के नाम से पुकारा जाने लगा। महाराजा मानसिंह के लिए तो यह प्रसिद्ध है ‘मान लगाई महीपति रेखा ऊपर रेखा’ शासकों एवं सामन्तों के बीच महत्त्वपूर्ण कड़ी सामन्ती सैनिक सेवा थी जिसे ‘चाकरी’ कहा जाता था। युद्ध काल में ‘सामन्ती सैनिक’ (जमीयत) सेवा प्राप्त करने के लिए राजा ‘खास रुक्का’ भेजता था। आगे चलकर ‘चाकरी’ व ‘छद’ की भी रकम जागीरदारों से ली जाने लगी।

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जागीरदारी प्रथा (सामन्ती प्रथा) FAQ

Q 1. सामन्तवाद किस दान से जुड़ी हुई व्यवस्था है?

Ans – सामन्तवाद भूमिदान से जुड़ी हुई व्यवस्था है.

Q 2. सामन्तों को किस आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटा गया था?

Ans – सामन्तों को उनकी हैसियत के आधार पर विभिन्न वर्गों में बांटा गया था.

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